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________________ द्वार २०६ २३२ अज्ञानवादियों के मतानुसार जीवादि नौ तत्त्वों के विषय में पूर्वोक्त सात विकल्प होने से ९ x ७ = ६३ भेद हुए। १. सन् जीवो इति को वेत्ति, किं वा तेन ज्ञातेन ? २. असन् जीवो इति को वेत्ति, किं वा तेन ज्ञातेन । ३. सदसन् जीवो इति को वेत्ति, किं वा तेन ज्ञातेन । ४. अवक्तव्यो जीवो इति को वेत्ति, किं वा तेन ज्ञातेन । ५. सदवक्तव्यो जीवो इति को वेत्ति, किं वा तेन ज्ञातेन । ६. असदवक्तव्यो जीवो इति को वेत्ति, किं वा तेन ज्ञातेन । ७. सदसदवक्तव्यो जीवो इति को वेत्ति, किं वा तेन ज्ञातेन । • कोई भी ऐसा विशिष्ट ज्ञानी नहीं है जो अतीन्द्रिय आत्मा का ज्ञान कर सके तथा आत्मा को जानने का कोई फल भी नहीं है। यदि कोई नित्य, सर्वगत, अमूर्त व ज्ञानादिगुणयुक्त अथवा इनसे विपरीत गुणयुक्त आत्मा को जाने भी तो उससे किस पुरुषार्थ की सिद्धि होगी? अत: आत्मा-जीव के विषय में अज्ञान ही श्रेष्ठ है। यह प्रथम विकल्प का अर्थ है। इस प्रकार शेष विकल्पों का भी समझना चाहिये। । ये सात जीव तत्त्व के विकल्प हुए। इसी प्रकार अजीवादि आठ के साथ भी समझना। कुल नौ तत्त्वों के त्रेसठ विकल्प हुए। चार विकल्प ‘उत्पत्ति' के साथ होते हैं। यथा १. सती भावोत्पत्ति: को वेत्ति, किं वा तया ज्ञातया। २. असती भावोत्पत्ति: को वेत्ति, किं वा तया ज्ञातया। ३. सदसती भावोत्पत्तिः को वेत्ति, किं वा तया ज्ञातया। ४. अवक्तव्या भावोत्पत्ति: को वेत्ति, किं वा तया ज्ञातया । १. भावोत्पत्ति है-यह कौन जानता है और ऐसा जानने का प्रयोजन भी क्या है ? २. भावोत्पत्ति नहीं होती है-कौन जानता है और इसे जानने से क्या प्रयोजन है ? ३. भावोत्पत्ति सत्-असत् है-कौन जानता है और इसे जानने से क्या प्रयोजन है? ४. भावोत्पत्ति अवक्तव्य है-कौन जानता है और इसे जानने से क्या प्रयोजन है ? 'उत्पत्ति' के साथ शेष तीन विकल्प-सदवक्तव्य, असदवक्तव्य तथा सदसदवक्तव्य नहीं घट सकते, तीनों विकल्प अवयव सापेक्ष हैं और उत्पत्तिकाल में पदार्थ निरवयव होता है। अवयव उत्पत्ति के बाद बनते हैं। अत: पदार्थ के उत्पत्तिकाल में पिछले तीन विकल्प नहीं घट सकते। पूर्वोक्त ४ भेदों को ६३ भेदों में मिलाने पर कुल ६३ + ४ = ६७ भेद अज्ञानवादियों के होते हैं ॥११९९-१२०४ ॥ चार्ट पृष्ठ २३१ पर देखें। ४. विनयवादी-ये विनय को ही श्रेष्ठ मानते हैं। विनय का अर्थ है गर्व रहित विनम्रवृत्ति । इनका कहना है कि सुर = देव, राजा, मुनि, स्वजन, वृद्ध, दयनीय जीव भिखारी आदि, माता और पिता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001717
Book TitlePravachana Saroddhar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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