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द्वार २०६
ज्ञानपूर्वक बाँधा गया कर्म निकाचित-अवश्यमेव भोगने योग्य होता है, क्योंकि वह तीव्र अध्यवसाय द्वारा बाँधा जाता है। पर जो कर्म मानसिक सजगता के बिना केवल वचन व काया के व्यापार से बाँधा जाता है वह निकाचित नहीं होता कि उसे अवश्य भोगना ही पड़े। ऐसा कर्म, चूने से लिप्त अत्यन्त शुष्क दीवार पर लगी हुई धूल जैसे हलके से वायु के झोंके से साफ हो जाती है वैसे अज्ञानता से बाँधा हुआ कर्म भी शुभ अध्यवसाय के झोंके से साफ हो जाता है। अज्ञानी को मानसिक अभिनिवेश नहीं होता, मानसिक अभिनिवेश ज्ञानी को ही होता है। अत: मोक्षमार्ग में प्रवृत्त मुमुक्षु के द्वारा अज्ञान को ही स्वीकार करना चाहिये। ज्ञान का स्वीकार तभी हो सकता है जबकि ज्ञान का कोई निश्चित स्वरूप हो। ज्ञान के स्वरूप के विषय में सभी दार्शनिकों का मन्तव्य भिन्न-भिन्न है। अत: ज्ञान के विषय में निर्णय नहीं किया जा सकता कि कौन सा ज्ञान सम्यग् है और कौन सा मिथ्या है। अत: अज्ञान ही श्रेष्ठ है।
इनके मतानुसार जीवादि नौ तत्त्वों के प्रति सत्, असत्, सदसत्, अवक्तव्य, सदवक्तव्य, असदवक्तव्य, सदसदवक्तव्य ये सात विकल्प होते हैं।
१. सत्त्व—प्रत्येक वस्तु स्वरूप से विद्यमान है। जैसे-किनारे, ग्रीवा, कपाल, कुक्षि, बुध आदि स्वपर्यायों से विवक्षित घट सत् है।
२. असत्त्व-प्रत्येक वस्तु परपर्याय से अविद्यमान है। जैसे त्वचा का रक्षण आदि करने रूप पट के पर्यायों से विवक्षित घट असत् है।
३. सदसत्-स्व-पर रूप से विवक्षित प्रत्येक वस्तु विद्यमान व अविद्यमान दोनों हैं। जैसे स्वपर पर्याय से विवक्षित घट सदसत् है। वस्तु का बोध करने के लिये प्रमाता किसी एक की विवक्षा करता
४. अवक्तव्य-स्व-पर पर्याय से एक साथ विवक्षित वस्तु अवक्तव्य है जैसे स्व-पर पर्याय की अपेक्षा एक साथ विवक्षित घट का वाचक शब्द न होने से 'घट' अवक्तव्य कहलाता है।
५. सदवक्तव्य—एक देश की अपेक्षा स्वपर्याय द्वारा सत्त्व रूप में विशेषित तथा दूसरे देश की अपेक्षा स्वपर उभय पर्याय द्वारा सत्त्व व असत्त्वरूप में विशेषित घट, वाचक शब्द के अभाव में सदवक्तव्य कहलाता है। एक देश की अपेक्षा वह घट है तथा दसरे देश की अपेक्षा वह अवक्तव्य है।
६. असदवक्तव्य—एक देश की अपेक्षा परपर्याय द्वारा असत्त्व रूप से विशेषित तथा दूसरे देश की अपेक्षा स्वपर उभय पर्याय द्वारा एक साथ सत्त्व व असत्त्वरूप में विशेषित घट वाचक शब्द के अभाव में 'असदवक्तव्य' कहलाता है। एक देश की अपेक्षा वह 'अघट' है तथा दूसरे देश की अपेक्षा वह अवक्तव्य है।
७. सदसदवक्तव्य-एक देश की अपेक्षा स्वपर्याय द्वारा सत्त्व रूप में विशेषित, दूसरे देश में पर पर्याय द्वारा असत्त्व रूप में विशेषित तथा तीसरे देश में स्व-पर उभय पर्याय द्वारा एक साथ विशेषित 'घट' वाचक शब्द के अभाव में ‘सदसदवक्तव्य' है अर्थात् एक देश में घट है, दूसरे देश में घट नहीं है तथा तीसरे देश में वह अवक्तव्य है। इस प्रकार घट के सात भेद हुए। इस तरह पटादि का भी समझना चाहिये।
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