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________________ द्वार २०६ २२६ 300MAACA D85500RODAMAK १. क्रियावादी के १८० भेद (i) जीव (ii) अजीव (iii) पुण्य (iv) पाप (v) आस्रव (vi) संवर (vii) निर्जरा (viii) बंध और (ix) मोक्ष। ये नवतत्त्व हैं। ये नव तत्त्व स्वत: और परत: दोनों तरह से जाने जाते हैं। वस्तु का ज्ञान जैसे स्वरूप से होता है, वैसे पररूप से भी होता है। जैसे आत्मा का ज्ञान चेतनालक्षण से होता है वैसे स्तंभ, कुंभ आदि अजीव से विपरीत लक्षण वाली होने से भी होता है। जैसे दीर्घ को देखकर ह्रस्व का ज्ञान होता है। अत: जीवादि पदार्थों का अस्तित्त्व भी स्वत: और परत: दोनों तरह से जाना जाता है तथा ये पदार्थ अपेक्षा भेद से नित्य और अनित्य दोनों हैं। इस प्रकार एक जीवतत्त्व ४ तरह से जाना जाता है और इन्हें काल, स्वभाव, नियति, ईश्वर और आत्मवादी सभी मानते हैं अत: एक-एक तत्त्व के काल आदि के मतानुसार ४-४ भेद होने से कुल ४ x ५ = २० x ९ = १८० भेद होते हैं। बोलने का तरीका १. अस्ति जीव: नित्य स्वत: कालत: ११. अस्ति जीव: अनित्य: स्वत: नियते: २. अस्ति जीव: नित्य: परत: कालत: १२. अस्ति जीव: अनित्य: परत: नियते: ३. अस्ति जीव: अनित्य: स्वत: कालत: १३. अस्ति जीव: नित्य: स्वत: ईश्वरात् ४. अस्ति जीव: अनित्यः परत: कालत: १४. अस्ति जीव: नित्य: परत: ईश्वरात् ५. अस्ति जीव: नित्य: स्वत: स्वभावत: १५. अस्ति जीव: अनित्य: स्वत: ईश्वरात् ६. अस्ति जीव: नित्य: परत: स्वभावत: १६. अस्ति जीव: अनित्य: परत: ईश्वरात् ७. अस्ति जीव: अनित्य: स्वत: स्वभावत: १७. अस्ति जीव: नित्य: स्वत: आत्मन: ८. अस्ति जीव: अनित्य: परत: स्वभावत: १८. अस्ति जीव: नित्य: परत: आत्मनः ९. अस्ति जीव: नित्य: स्वत: नियते: १९. अस्ति जीव: अनित्यः स्वत: आत्मनः १०. अस्ति जीव: नित्य: परत: नियतेः २०. अस्ति जीव: नित्य: परत: आत्मनः अजीवादि ८ के भी इसी तरह भागे बनते हैं। इस प्रकार एक जीव पदार्थ के साथ १२० भेद हुए। अजीवादि शेष पदार्थों के साथ भी इसी प्रकार २०-२० भेद होने से क्रियावादी के कुल मिलाकर १८० भेद होते हैं। जीवादि ९ x २० स्वत:-परत:, नित्य-अनित्य, काल-स्वभाव-नियति-ईश्वर और आत्मा के भेद = १८० क्रियावादी के भेद होते हैं ।।११८९-११९३ ।। चार्ट देखें पृष्ठ २२७ पर। २. अक्रियावादी के ८४ भेद पुण्यबंध, पापबंधरूप क्रियाओं को नहीं मानने वाले अक्रियावादी हैं। उनका मानना है कि जगत के सभी पदार्थ क्षणिक हैं और क्षणिक पदार्थों में क्रिया घट नहीं सकती क्योंकि वे तो उत्पन्न होते ही दूसरे क्षण में नष्ट हो जाते हैं। उन्हीं पदार्थों में क्रिया हो सकती है जो उत्त्पत्ति के पश्चात् कुछ क्षण ठहरते हैं। ये आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करते । कहा है कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001717
Book TitlePravachana Saroddhar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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