SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 204
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रवचन-सारोद्धार १८७ द्रव्येन्द्रिय का नाश हो जाने पर मात्र आभ्यंतर द्रव्येन्द्रिय से विषयों का ग्रहण नहीं होता। उदाहरणार्थ-बाह्यनिर्वृत्ति है तलवार, आभ्यंतर निर्वृत्ति है तलवार की धार और उपकरण है तलवार की छेदन-भेदन शक्ति । उपकरणरूप द्रव्येन्द्रिय और आभ्यंतर निर्वृत्ति अपेक्षा भेद से भिन्न और अभिन्न दोनों हैं। भिन्न इस दृष्टि से है कि आभ्यंतर निर्वृत्ति इन्द्रिय का सद्भाव होने पर भी यदि उपकरण इन्द्रिय आहत हो जाती है तो विषय का ज्ञान नहीं होता है। अभिन्न इस दृष्टि से है कि उपकरण इन्द्रिय, आभ्यंतर निर्वृत्ति इन्द्रिय की शक्ति रूप है और शक्ति व शक्तिमान के मध्य अभेद सम्बन्ध होता है। भावेन्द्रिय के दो भेद हैं(१) लब्धि-भावेन्द्रिय - इन्द्रियों से संबद्ध ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय कर्म का क्षयोपशम लब्धि भावेन्द्रिय है। (२) उपयोग-भावेन्द्रिय - ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय कर्म के क्षयोपशम से प्राप्त शक्ति की प्रवृत्ति को उपयोग भावेन्द्रिय कहते हैं। नाम विस्तार जघन्य विषयमान उत्कृष्ट विषयमान १. श्रोत्र अंगुल का असंख्यातवां अंगुल के असंख्यातवें १२ योजन से आगत भाग भाग की दूरी से आगत शब्द शब्द । २. चक्षु अंगुल का असंख्यातवां अंगुल के संख्यातवें साधिक १ लाख योजन में भाग भाग की दूरी पर स्थित रूप । स्थित रूप ३. घाण अंगुल का असंख्यातवां अंगुल के असंख्यातवें 7 ९ योजन से आगत भाग भाग से आगत गंध को । गंध को रस को तथा ४. रसन २ से ९ अंगुल रस को, स्पर्श को । स्पर्श को ग्रहण ५. स्पर्शन स्व-शरीर प्रमाण ग्रहण करती है। करती है। श्रोत्र, चक्षु, घ्राण व रसन इन चारों इन्द्रियों का विस्तार आत्मांगुल से तथा स्पर्शनेन्द्रिय का विस्तार उत्सेधांगुल से मापा जाता है। यदि अन्य इन्द्रियों का विस्तार भी उत्सेधांगुल से ही लिया जाये तो तीन कोस की अवगाहना वाले मनुष्यों को तथा छ: कोस की अवगाहना वाले हाथियों को विषय का ज्ञान नहीं होगा। जीभ शरीर के अनुपात में होती है तभी वह अपने विषय को ग्रहण कर सकती है। यदि उसका प्रमाण उत्सेधांगुल से माना जाये तो जीभ शरीर की अपेक्षा अतिअल्प होगी और इतने अल्प प्रमाणवाली जीभ अपने विषय का ज्ञान करने में समर्थ नहीं हो सकती। अत: पूर्वोक्त चारों इन्द्रियों का विस्तार आत्मांगुल से ही लिया जाता है। परन्तु विषयग्रहण का परिमाप सभी इन्द्रियों का आत्मांगुल से ही समझना चाहिये। श्रोत्रेन्द्रिय अधिक से अधिक १२ योजन दूर से आये हुए मेघ आदि के शब्द को ग्रहण कर सकती है। इससे अधिक दूर का नहीं। इससे अधिक दूर से आगत शब्द कमजोर हो जाने से इन्द्रिय ग्राह्य नहीं बनता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001717
Book TitlePravachana Saroddhar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy