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१८३ द्वार : १८४ द्वार :
१८५ द्वार :
उत्पद्यमानउद्वर्तमान
एमेव य उव्वट्टणसंखा पुण सुरवराण समा ॥१०८२ ॥ -गाथार्थ
नारकों की उत्पत्ति एवं च्यवन की संख्या - नरक जीवों की उत्पत्ति एवं च्यवन की संख्या १०८२ गाथा में देवताओं की उत्पत्ति एवं च्यवन की संख्या के तुल्य बताई गई है।
द्वार १८३-१८५
-विवेचनसातों ही नरक में एक समय में जघन्यतः १-२-३ जीव जन्मते और मरते हैं । इन दोनों द्वारों का वर्णन १७७वें द्वार में आ चुका है अतः पुनः यहाँ नहीं किया गया है।
उत्कृष्टतः संख्याता और असंख्याता जीव जन्मते और मरते हैं ।
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कायस्थिति
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अस्संखोसप्पिणिसप्पिणीउ एगिंदियाण य चउन्हं । ता चेव ऊ अणंता वणस्सइए उ बोद्धव्वा ॥ १०९४ ॥ वाससहस्सासंखा विगलाणं ठिइउ होइ बोद्धव्वा । सत्तट्ठभवा उ भवे पणिदितिरिमणुय उक्कोसा ॥ १०९५ ॥
-गाथार्थ—
एकेन्द्रिय-विकलेन्द्रिय तथा संज्ञी जीवों की कायस्थिति — चार एकेन्द्रियों की कायस्थिति असंख्याता उत्सर्पिणी- अवसर्पिणी परिमाण, वनस्पतिकाय की अनन्त उत्सर्पिणी- अवसर्पिणी परिमाण, विकलेन्द्रिय की संख्याता हजार वर्ष तथा पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच- मनुष्य की उत्कृष्ट कार्यस्थिति सात-आठ भव की होती है ।। १०९४-९५ ।।
-- विवेचन
कायस्थिति–पृथ्विकायादि के जीव मरकर जितने समय तक एक काय में पुनः पुनः पैदा हो सकते हैं, वह काल जीव की 'कायस्थिति' है ।
कायस्थिति का परिमाप, काल और क्षेत्र दो तरह से समझा जाता है ।
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