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________________ १७८ १८३ द्वार : १८४ द्वार : १८५ द्वार : उत्पद्यमानउद्वर्तमान एमेव य उव्वट्टणसंखा पुण सुरवराण समा ॥१०८२ ॥ -गाथार्थ नारकों की उत्पत्ति एवं च्यवन की संख्या - नरक जीवों की उत्पत्ति एवं च्यवन की संख्या १०८२ गाथा में देवताओं की उत्पत्ति एवं च्यवन की संख्या के तुल्य बताई गई है। द्वार १८३-१८५ -विवेचनसातों ही नरक में एक समय में जघन्यतः १-२-३ जीव जन्मते और मरते हैं । इन दोनों द्वारों का वर्णन १७७वें द्वार में आ चुका है अतः पुनः यहाँ नहीं किया गया है। उत्कृष्टतः संख्याता और असंख्याता जीव जन्मते और मरते हैं । I कायस्थिति Jain Education International अस्संखोसप्पिणिसप्पिणीउ एगिंदियाण य चउन्हं । ता चेव ऊ अणंता वणस्सइए उ बोद्धव्वा ॥ १०९४ ॥ वाससहस्सासंखा विगलाणं ठिइउ होइ बोद्धव्वा । सत्तट्ठभवा उ भवे पणिदितिरिमणुय उक्कोसा ॥ १०९५ ॥ -गाथार्थ— एकेन्द्रिय-विकलेन्द्रिय तथा संज्ञी जीवों की कायस्थिति — चार एकेन्द्रियों की कायस्थिति असंख्याता उत्सर्पिणी- अवसर्पिणी परिमाण, वनस्पतिकाय की अनन्त उत्सर्पिणी- अवसर्पिणी परिमाण, विकलेन्द्रिय की संख्याता हजार वर्ष तथा पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच- मनुष्य की उत्कृष्ट कार्यस्थिति सात-आठ भव की होती है ।। १०९४-९५ ।। -- विवेचन कायस्थिति–पृथ्विकायादि के जीव मरकर जितने समय तक एक काय में पुनः पुनः पैदा हो सकते हैं, वह काल जीव की 'कायस्थिति' है । कायस्थिति का परिमाप, काल और क्षेत्र दो तरह से समझा जाता है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001717
Book TitlePravachana Saroddhar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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