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________________ प्रवचन-सारोद्धार १७३ जो पूर्वोत्पन्न हैं वे विशुद्धतर लेश्या वाले हैं और जो पश्चात् उत्पन्न हैं वे अविशुद्धतर लेश्या वाले हैं। इसीलिये कहा गया है कि सभी नरक के जीव समान लेश्या वाले नहीं हैं। __इस सूत्र में नारकों की लेश्या का वर्णन किया गया है। यदि वर्ण और लेश्या एक होते तो लेश्या का वर्ण से अलग वर्णन करना व्यर्थ सिद्ध होता। अत: लेश्या का वर्ण से अलग वर्णन यह सिद्ध करता है कि द्रव्य लेश्या शारीरिक-वर्णरूप नहीं है और जो परिवर्तित होती है वह भाव-लेश्या है ॥१०८३ ॥ |१७९ द्वार: नारकों का अवधिज्ञान चत्तारि गाउयाइं अद्भुट्ठाई तिगाउयं चेव। अड्डाइज्जा दोन्नि य दिवड्ड मेगं च नरयोही ॥१०८४ ॥ -गाथार्थनारकों का अवधिज्ञान-सातों नरक में क्रमश: ४ कोस, ३९ कोस, ३ कोस, २९ कोस, १९ कोस तथा १ कोस क्षेत्र परिमाण वाला अवधिज्ञान होता है॥१०८४ ।। -विवेचनउत्कृष्ट अवधिक्षेत्र जघन्य अवधि क्षेत्र ४ कोश ३१ कोश ३१ कोश ३ कोश ३ कोश २१ कोश २- कोश २ कोश २ कोश ११ कोश १५ कोश १ कोश १ कोश ०१ कोश - - नरक के जीवों को अपने अवधिज्ञान से पूर्वोक्त दूरी में रहे हुए रूपी पदार्थों का ज्ञान होता है ॥१०८४ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001717
Book TitlePravachana Saroddhar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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