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________________ १७० द्वार १७८ —विवेचन १. रत्नप्रभा कापोत लेश्या २. शर्कराप्रभा कापोत लेश्या । पूर्व की अपेक्षा से क्लिष्टतर ३. वालुकाप्रभा कापोत, नील ले. | पूर्व की अपेक्षा से क्लिष्टतर | ऊपर के प्रतरों में कापोत, ४. पंकप्रभा नील लेश्या पूर्व की अपेक्षा से क्लिष्टतर नीचे के प्रतरों में नील, ५. धूमप्रभा नील, कृष्ण ले. पूर्व की अपेक्षा से क्लिष्टतर | ऊपर के प्रतरों में नील, ६. तम:प्रभा कृष्ण लेश्या । पूर्व की अपेक्षा से क्लिष्टतर | नीचे के प्रतरों में कृष्ण, ७. तमस्तमप्रभा | कृष्ण लेश्या पूर्व की अपेक्षा से क्लिष्टतम | लेश्या समझनी चाहिए। पूर्व नरकों की अपेक्षा उत्तरवर्ती नरकों में सजातीय व विजातीय दोनों लेश्यायें क्लिष्टतर और क्लिष्टतम होती हैं। किसी का मत है कि-नारकी और देवों की जो लेश्याएं बताई गई है वे द्रव्यलेश्या ही हैं। अन्यथा सातवीं नारकी के जीवों को सम्यक्दर्शन की प्राप्ति का उल्लेख जो आगमों में है, वह कैसे घटेगा? कारण, तेज, पद्म और शुक्ल लेश्या में ही सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है, प्रथम की तीन लेश्याओं में नहीं। आवश्यक सूत्र में कहा है कि सम्मत्तस्स य तिसु उवरिमासु पडिवज्जमाणओ होई। पुव्वपडिवन्नओ पुण अन्नयरीए उ लेसाए ।। “सम्यक्त्व प्राप्त करने वाला आत्मा तेज, पद्म और शुक्ल लेश्या वाला ही होता है। पूर्व प्रतिपन्न अन्य लेश्यावर्ती भी हो सकता है।" सातवीं नरक के जीवों में तेज, पद्म, शुक्ल लेश्या होती ही नहीं है। उनमें तो मात्र कृष्ण लेश्या ही होती है, अत: उन्हें सम्यक्त्व की प्राप्ति कैसे हो सकती है ? तथा सौधर्म देवलोक में केवल तेजोलेश्या ही होती है, किन्तु वह परमात्मा महावीर देव पर भयंकर उपसर्ग करने वाले संगम आदि देवों में नहीं हो सकती, क्योंकि तेजोलेश्या के सद्भाव में परिणाम प्रशस्त होते हैं और प्रशस्त परिणाम में इस प्रकार उपसर्ग करने का भाव नहीं आ सकता। तथा नरक के जीवों में तीन ही लेश्यायें होती है, यह कथन भी संगत नहीं है। जीवसमास में कहा है-नरक में तीन लेश्यायें, द्रव्य लेश्या की अपेक्षा समझना, भाव परावर्तन की अपेक्षा तो वहाँ भी छ: लेश्यायें होती है। अत: देव और नरक में प्रतिनियत लेश्यायें बाह्यवर्णरूप द्रव्य लेश्यायें ही समझना । समाधान—पूर्वोक्त कथन आगम ज्ञान की अबोधता के सूचक हैं। आगम के अनुसार देव और नरक की प्रतिनियत लेश्याओं को बाह्य वर्ण रूप द्रव्य-लेश्या न मानकर ही पूर्वोक्त तीनों शंकाओं का समाधान किया जा सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001717
Book TitlePravachana Saroddhar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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