________________
१६०
दीवसिहा जोइसनामगा य एए करेंति उज्जोयं । चित्तंगेसु य मल्लं चित्तरसा भोयणट्ठा ॥ १०६९ ॥ मणियंगेसु य भूसणवराई भवणाइ भवणरुक्खेसु । तह अणियसु धणियं वत्थाई बहुप्पयाराई ॥ १०७० ॥ -गाथार्थ
द्वार १७१
दस कल्पवृक्ष - १. मत्तांगक २. भृतांग ३. त्रुटितांग ४. दीप ५. ज्योति ६. चित्रांग ७. चित्ररसा ८. मणिअंग ९. गेहाकार तथा १०. अनग्ना- ये दस प्रकार के कल्पवृक्ष हैं ।। १०६७ ।।
मत्तांगक कल्पवृक्ष में से सुखदायी पेय मद्य, भृतांग से बर्तन, त्रुटितांग से अनेक प्रकार के वादित्र प्राप्त होते हैं । दीपशिखा और ज्योतिरंग कल्पवृक्ष प्रकाश देते हैं। चित्रांग से माला और चित्ररस से भोजन मिलता है । मणिअंग से श्रेष्ठ आभूषण, भवनवृक्ष से घर, अनग्न से अनेकविध वस्त्र मिलते हैं । १०६८-७० ।।
-विवेचन
कल्पवृक्ष- इच्छित वस्तुओं को देने वाले पेड़ । ये १० प्रकार के हैं ।
१. मत्तांगदा या मत्तांगा—मत्त = मद, अंग = कारण, दा = देने वाले, अर्थात् मादक पदार्थों को देने वाले मत्तांगदा अथवा मत्त = मद, अंग = कारण अर्थात् मादक पदार्थ जिनमें हैं वे मत्तांग | इन कल्पवृक्षों के फल स्वभावत: विशिष्ट बल - कान्ति को देने वाले रस से युक्त एवं सुगन्धित मद्य से पूर्ण होते हैं । परिपक्व होने के कारण इनसे सतत मद झरता रहता है ।
२. भृतांगा— भृत = भरना, अंग = कारण अर्थात् वस्तुओं को भरने के पात्र, भाजन को देने वाले 'भृतांगा' कल्पवृक्ष हैं। इन वृक्षों पर सहज स्वाभाविक सोने, चांदी व रत्नमय, थाली, कटोरी, कलश, चम्मच आदि विविध आकार में परिणत, अनेक पात्र फल की तरह शोभायमान लगे रहते हैं । पात्रों के उत्पादक होने से वृक्ष भी भृतांग कहलाते हैं ।
३. त्रुटितांगा— त्रुटिता = वादित्र, अंग = कारण, अर्थात् ऐसे वृक्ष जो तत, वितत, घन, शुषिर आदि अनेक प्रकार के वादित्रों से फल की तरह लदे रहते हैं । तत = वीणादि, वितत = पटह आदि, घनं = झालर, शुषिर ढोल ।
४. दीपांगा – सुवर्ण और मणियों से निर्मित दीपक जिस प्रकार प्रकाश फैलाते हैं वैसे ‘दीपांग' कल्पवृक्ष स्वाभाविक प्रकाशमान होते हैं। इनमें 'दीप' फल की तरह लगे रहते हैं 1
५. ज्योतिषांगा - सूर्य मण्डल की तरह सर्वत्र प्रकाश करने वाले। इनमें फल की तरह 'सूर्य के आकार वाले' फल लगे रहते हैं ।
Jain Education International
६. चित्रांगा -- नानावर्णयुक्त कुसुममालाओं से सुशोभित कल्पवृक्ष ।
७. चित्ररसा - युगलिकों के भोजन योग्य, दाल-भात, मिष्टान्न आदि से भी अति सुस्वादु, इन्द्रियों के पोषक, बलवर्धक विविधरसपूर्ण फलवाले ।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org