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________________ १५८ द्वार १६९ (iii) संभाषण - कामवर्धक वार्तालाप करना। (iv) हसित - व्यंग्यपूर्ण मधुर-मधुर मुस्कुराना । (v) ललित - पाशा आदि खेलना। (vi) उपगूढ़ - कसकर आलिंगन देना। (vii) दंतपात - दन्तक्षत करना। (viii) नखनिपात - नख आदि से घात करना। (ix) चुम्बन -- चूमना। आलिंगन - स्पर्श करना। (xi) आदान स्तन आदि को रागवश पकड़ना। (xii) करण - वात्स्यायन के कामशास्त्र में वर्णित कामक्रीड़ा की पूर्वभूमिका रूप ८४ आसन करना। (xiii) आसेवन - मैथुन क्रिया करना। (xiv) अनंगक्रीड़ा - विषय सेवन के मुख्य अंगों के अतिरिक्त मुख, स्तन कूख आदि से क्रीड़ा करना। पूर्वोक्त १४ प्रकारों से प्राप्त होने वाला सुख संयोग-काम है। २. वियोग-परस्पर वियोग में उत्पन्न स्थिति विशेष । इसके १० भेद हैं। (i) अर्थ - स्त्री की अभिलाषा करना। किसी स्त्री के विषय में मात्र सुनकर ही पाने की इच्छा करना। (ii) चिन्ता - उसका कैसा सुन्दर रूप है। उसके कैसे गुण हैं। इस प्रकार रागवश चिन्तन करना। (iii) श्रद्धा - स्त्री संभोग की अभिलाषा करना। (iv) संस्मरण --- स्त्री के रूप की कल्पना करके अथवा चित्र आदि देखकर स्वयं को सान्त्वना देना। (v) विक्लव - वियोग जन्य व्यथा के कारण आहार आदि की उपेक्षा करना। (vi) लज्जानाश - गुरुजनों की लज्जा छोड़कर उनके संमुख प्रेमिका के गुणगान करना। (vii) प्रमाद स्त्री के लिये विविध क्रियायें करना। उन्माद विक्षिप्त की तरह प्रलाप करना। तद्भावना -- स्त्री की कल्पना से स्तंभादि का आलिंगन करना। मरणं - राग की तीव्रता के कारण असह्य व्यथा से मूर्च्छित हो जाना। यहाँ मरण का अर्थ प्राणत्याग नहीं है। अन्यथा शृंगाररस का भंग हो जायेगा। वृत्तिकार अभिनवगुप्त ने भी इनकी व्याख्या इसी प्रकार की है ॥१०६२-६५ ॥ 8 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001717
Book TitlePravachana Saroddhar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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