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________________ प्रवचन-सारोद्धार १३५ मरना ही श्रेष्ठ है-ऐसी शुभ भावना से भावित आत्मा ही पूर्वोक्त अनशन को स्वीकार करते हैं। इन तीनों मरण का फल वैमानिक देवत्व या मोक्षगमन है, किन्तु इन्हें स्वीकार करने वाले आत्माओं का धैर्य विशिष्ट, विशिष्टतर और विशिष्टतम होने से ये मरण क्रमश: जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट कहलाते हैं जघन्य मध्यम उत्कृष्ट १. भक्तपरिज्ञा मरण अप्रथमसंघयणी साधु-साध्वी और देश-विरति श्रावक, स्वीकार कर सकते हैं। २. इंगिनी-मरण। यह मरण | ३. पादपोपगमन । यह मरण पर्वत विशिष्ट धैर्य और संहननयुक्त व भीत के समान निश्चल, साधु भगवंत ही स्वीकार कर वज्रऋषभनाराच संघयणी, सकते हैं. साध्वी नहीं। | तीर्थंकर या विशिष्ट मुनि ही स्वीकार करते हैं। साध भर कहा है-प्रथम संघयण पर्वत व दीवार के समान मजबूत है। १४ पूर्वी के विच्छेद के साथ उसका भी विच्छेद होता है। सभी तीर्थकर परमात्मा कर्मभूमि में उत्पन्न होते हैं, सर्वज्ञ सभी के गुरु व सभी से पूजित हैं। सभी का मेरु पर अभिषेक होता है। सर्व लब्धियुक्त होते हैं। सभी परिषहों को जीतकर पादपोपगमन द्वारा मोक्ष जाते हैं। शेष तीनों कालों में होने वाले अनगार तीनों मरण को वरण करते हैं। तीर्थंकर द्वारा सेवित होने से पादपोपगमन ज्येष्ठ है। भक्तपरिज्ञा और इंगिनीमरण साधुओं द्वारा सेवित होने से ज्येष्ठ नहीं कहलाते ॥१०१७ ॥ १५८ द्वार : पल्योपम पलिओवमं च तिविहं उद्धारऽद्धं च खेत्तपलियं च। एक्केक्कं पुण दुविहं बायर सुहुमं च नायव्वं ॥ १०१८ ॥ जं जोयणविच्छिन्नं तं तिउणं परिरएण सविसेसं । तावइयं उव्विद्धं पल्लं पलिओवमं नाम ॥ १०१९ ॥ एगाहियबेहियतेहियाण उक्कोस सत्तरत्ताणं। सम्मटुं संनिचियं भरियं वालग्गकोडीहिं ॥ १०२० ॥ तत्तो समए समए इक्किक्के अवहियंमि जो कालो। संखिज्जा खलु समया बायरउद्धारपल्लंमि ॥ १०२१ ॥ एक्केक्कमओ लोमं कट्ठमसंखिज्जखंडमद्दिस्सं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001717
Book TitlePravachana Saroddhar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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