________________
११६
द्वार १५२
कोई छ: पुरुष जामुन खाने की इच्छा करते हुए चले जा रहे थे। इतने में पके हुए, रसपूर्ण जामुनों के भार से झुक गई हैं शाखायें जिसकी, ऐसे कल्पवृक्ष के समान जामुन के पेड़ को देखा। सभी खुश होकर बोले—अच्छा हुआ समय पर पेड़ मिल गया। अब जामुन खाकर हमें अपनी भूख मिटानी चाहिये। सभी पेड़ के पास आये और फल पाने का उपाय सोचने लगे।
एक पुरुष बोला इस वृक्ष पर चढ़ना मौत को बुलाना है अत: इस पर चढ़ने की अपेक्षा फलों से लदी हुई बड़ी-बड़ी शाखा वाले इस वृक्ष को काट गिराना ही अच्छा है।
यह सनकर दसरे ने कहा-वक्ष काटने से क्या लाभ? केवल फलों से लदी शाखाओं को काटने से ही हमारा काम पूर्ण हो जायेगा।
तीसरे ने कहा-बड़ी शाखाओं को क्यों काटा जाये, छोटी-छोटी शाखाओं को काटने से ही अपना काम चल सकता है।
चौथे ने कहा-शाखाओं को भी क्यों काटना? फलों के गुच्छों को ही तोड़ लीजिये। पाँचवां बोला-गुच्छों से क्या प्रयोजन है ? उनमें से पके फलों को ही चुन लेना अच्छा है।
अन्त में छठे पुरुष ने कहा- ये सब विचार व्यर्थ हैं। हम लोगों को चाहिये उतने फल तो नीचे भी गिरे हुए हैं। क्या उनसे हमारा काम नहीं चल सकता? दूसरा दृष्टान्त
छ: पुरुष धन लूटने के इरादे से कहीं जा रहे थे। रास्ते में किसी गाँव को देखकर एक व्यक्ति बोला—'पशु-पक्षी, पुरुष, स्त्री, बाल और वृद्ध जो कोई भी दिखे उसे मारो और धन लूट लो।'
दूसरे ने कहा—पशु-पक्षी आदि को मारने से क्या लाभ है? केवल जो विरोध करे उन्हें मारो और धन लूट लो।
यह सुनकर तीसरा बोला-बिचारी स्त्रियों को क्यों मारना, केवल पुरुषों को ही मारो। चौथा बोला—सब पुरुषों को नहीं, जो सशस्त्र हों, उन्हीं को मारो ।
पाँचवें ने कहा—जो सशस्त्र पुरुष विरोध नहीं करते उन्हें क्यों मारना अत: जो विरोध करे उन्हें ही मारो।
अंत में छठे पुरुष ने कहा—किसी को मारने से क्या लाभ? अपने को तो धन से काम है। जैसे भी हो सके धन लूट लो। किसी को मारो मत।
दोनों दृष्टान्तों में विचारों की छ: स्थितियाँ क्रमश: कृष्ण, नील, कापोत, तेज, पद्म व शुक्ल लेश्या की परिचायक हैं। इनसे लेश्याओं का स्वरूप स्पष्ट जाना जाता है। प्रत्येक दृष्टांत के छह-छह पुरुषों में पूर्व-पूर्व पुरुष के परिणामों की अपेक्षा उत्तर-उत्तर पुरुष के परिणाम शुभ-शुभतर व शुभतम हैं। ५ अस्तिकाय .
- काल द्रव्य को छोड़कर शेष द्रव्य ही अस्तिकाय हैं, जैसे,
धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय व जीवास्तिकाय।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org