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________________ प्रवचन-सारोद्धार BHARMAR2435AAAADMAMA SC00030038sic: 5 5004155555554 है। पर आधिगमिक-गुरु का उपदेश आदि निमित्तों के द्वारा उत्पन्न होने वाली तत्त्व-श्रद्धा आधिगमिक सम्यक्त्व है। तात्पर्य तीर्थंकर, गुरु आदि के उपदेश के बिना ही स्वत: कर्म के उपशम या क्षय द्वारा जिनवचन पर श्रद्धा होना निसर्ग सम्यक्त्व है और उपदेश, जिन प्रतिमा के दर्शन, जाति-स्मरण ज्ञान आदि बाह्य-निमित्त जन्य कर्म के उपशम या क्षय से पैदा होने वाला श्रद्धान, अधिगम सम्यक्त्व है। त्रिविध क्षायिकादि भेद से अथवा कारकादि भेद से त्रिविध सम्यक्त्व है। (i) क्षायिक अनन्तानुबंधी कषाय व तीनों दर्शनमोहनीय कर्म के क्षय से उत्पन्न आत्मा का परिणाम विशेष क्षायिक सम्यक्त्व है। (ii) क्षायोपशमिक–उदयगत मिथ्यात्व को भोगकर क्षय करने से तथा अनदित मिथ्यात्व के उपशम से होने वाला आत्मा का परिणाम विशेष क्षायोपशमिक सम्यक्त्व है। उपशम के दो अर्थ हैं-(i) कर्म के उदय को रोकना (ii) कर्मगत मिथ्या स्वभाव को दूर करना। क्षायोपशमिक सम्यक्त्व में दोनों बातें घटित होती हैं। मिथ्यात्वमोह के जो तीन पुंज किये जाते हैं उनमें से मिथ्यात्व व मिश्रपुंज के विषय में उपशम का प्रथम अर्थ घटित होता है क्योंकि उनका उदय अध्यवसायवश रोक दिया जाता परन्तु सम्यक्त्वपुंज (शुद्धपंज) के विषय में उपशम का द्वितीय अर्थ घटित होता है क्योंकि कर्मगत मिथ्यास्वभाव के दूर होने से ही शुद्धपुंज बना है। इसीलिये उदीर्ण मिथ्यात्व के क्षय से व अनुदीर्ण मिथ्यात्व के उपशम से जिसका मिथ्या स्वभाव नष्ट हो चुका है ऐसा शुद्धपुंजरूप मिथ्यात्व भी क्षायोपशमिक सम्यक्त्व कहलाता है। जैसे अत्यंत स्वच्छ वस्त्र के भीतर से वस्तु को देखने में कोई बाधा नहीं होती वैसे शुद्ध बने मिथ्यात्व के पुद्गल भी 'तत्त्वरुचि' रूप आत्मपरिणाम की उत्पत्ति में बाधक नहीं बनते । इसी कारण वे पुद्गल भी उपचार से सम्यक्त्व कहलाते हैं। (iii) औपशमिक-मिथ्यात्व मोहनीय कर्म के विपाकोदय व प्रदेशोदय दोनों के अभाव में होने वाला आत्मा का परिणाम विशेष औपशमिक सम्यक्त्व है। जैसे राख से प्रच्छन्न आग सर्वथा निष्क्रिय हो जाती है, वैसे इस सम्यक्त्व की विद्यमानता में मिथ्यात्व का प्रदेशोदय व विपाकोदय दोनों अवरुद्ध हो जाते हैं। यहाँ उपशम का अर्थ है कर्म के उदय को रोकना। • प्रदेशोदय-प्रदेशोदय में जीव कर्मफल का उदय होने पर उसका सुख-दुःखात्मक अनुभव नहीं करता है। यथा-मूर्छावस्था में किया गया ऑपरेशन। यहां चीर-फाड़ होने के कारण पीड़ा की घटना घटित होती है, पर बेहोशी के कारण व्यक्ति को उसका अनुभव नहीं होता। जो कर्म बिना सुख दुःख का अनुभव कराये उदय में आकर निर्जरित हो जाते हैं, उनका प्रदेशोदय मानना चाहिये-जैसे ईर्यापथिक कर्म। • विपाकोदय–विपाकोदय में जीव कर्म के फल का अनुभव करता है। जैसे बिना बेहोश किये ऑपरेशन करने पर चीर फाड़ की वेदना का अनुभव होता है। आगम मते- यह सम्यक्त्व उपशम श्रेणी चढ़ने वाले आत्मा को अनन्तानुबंधी चार कषाय एवं तीन दर्शनमोहनीय का उपशम करने के पश्चात् होता है। प्रश्न-क्या उपशम श्रेणी चढ़ने वालों को ही यह सम्यक्त्व होता है ? उत्तर-नहीं, अनादि मिथ्यात्वी को प्रथम बार यही सम्यक्त्व होता है। सर्वप्रथम आयु कर्म को छोड़कर शेष सात कर्म की स्थिति यथाप्रवृत्तिकरण द्वारा पल्योपम के असंख्यात भाग न्यून एक कोटाकोटि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001717
Book TitlePravachana Saroddhar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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