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द्वार. १०९-११०
इन छ: प्रकार के नपुंसकों में यदि दीक्षा. की अन्य योग्यतायें हों तो इन्हें दीक्षा दी जा सकती है, अन्यथा नहीं।
११० द्वार:
दीक्षा-अयोग्य विकलांग
हत्थे पाए कन्ने नासा उढे विवज्जिए चेव। वामणगवडभखुज्जा. पंगुलटुंटा य काणा य ॥७९५ ॥ पच्छावि होति विगला आयरियत्तं न कप्पए तेसिं। सीसो ठावेयव्वो काणगमहिसोव निम्मंमि ॥७९६ ॥
-गाथार्थदीक्षा के अयोग्य विकलांग-हाथ, पाँव, कान, नाक, होठ रहित, वामन, वडभ, कुब्ज, पंगु, लूला और काना इतने दीक्षा के अयोग्य हैं। दीक्षा लेने के बाद यदि कोई विकलांग हो जाता है तो उसे आचार्य पद नहीं दिया जाता। यदि आचार्य विकलांग हो जाये तो उनके स्थान पर योग्य शिष्य को आचार्य पद दिया जाता है और विकलांग आचार्य को चुराये हुए महिष की तरह गुप्त स्थान में रखा जाता है ।।७९५-७९६ ॥
-विवेचन१. हाथ, पाँव, कान, नाक और होठ रहित । २. जिसके हाथ, पैर आदि अंग अपेक्षाकृत छोटे हों, वामन । ३. आगे या पीछे से जिसका शरीर निकला हुआ हो, वडभ । ४. एक पसली से हीन, कुब्ज। ५. पाँव आदि से अपंग होने से जो चल नहीं सकता हो, पंगु । ६. जिसका हाथ न हो अथवा आधा हो, कटा हुआ हो, टुण्ट । ७. एक आँख वाला, काणा। ये दीक्षा के लिये अयोग्य हैं। इन्हें दीक्षा देने में लोक निन्दा, तिरस्कार आदि दोष हैं। प्रश्न—चारित्र ग्रहण करने के पश्चात् यदि कोई विकलांग हो जाये तो क्या करे?
उत्तर—सामान्य मुनि यदि चारित्र-ग्रहण करने के बाद विकलांग हो जाता है तो अन्य सभी योग्यताओं के बावजूद भी उसे आचार्य पद नहीं दिया जाता। यदि आचार्य स्वयं विकलांग हो जाता है तो वह योग्यता सम्पन्न, गुणोपेत शिष्य को अपने पद पर प्रतिष्ठापित कर चुराये गये महिष की तरह जैसे चुराये गये महिष को कोई देख न ले इस भय से गाँव व नगर के बाहर किसी खड्डे में....गुप्तस्थान में या गहन जंगल में रखा जाता है वैसे आचार्य भी गुप्त स्थान में साधनारत रहे । अन्यथा शासन की अवहेलना, अनादर, आज्ञाभंग आदि अनेक दोषों की सम्भावना रहती है। गुप्त प्रदेश में रहे हुए आचार्य की परिचर्या स्थविर मुनि करते हैं ॥ ७९५-७९६ ।।
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