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९. उन्मत्त --- भूतादि के आवेश से युक्त अथवा मोह के प्रबल उदय से परवश बने हुए को दीक्षा नहीं देनी चाहिये ।
द्वार १०७
दोष— भूत आदि रुष्ट होकर साधुओं का अनिष्ट करें जिससे स्वाध्याय, ध्यान और संयम की हानि हो ।
१०. अदर्शन-दर्शन = नेत्र और सम्यक्त्व, ये दोनों प्रकार की आँखें जिसके नहीं हैं, ऐसे अन्ध व्यक्ति को तथा स्त्यानर्द्धि निद्रा वाले को दीक्षा नहीं देनी चाहिये ।
दोष -- नेत्रहीन षट्काय जीवों की विराधना करेगा । विषम स्थान में कील, काँटे आदि पर गिरने की सम्भावना रहेगी। स्त्यानर्द्धि निद्रावान् क्रुद्ध होकर साधु को मार सकता है।
११. दास-दासी के गर्भ से उत्पन्न, क्रीत एवं कर्जदार को दीक्षा नहीं देनी चाहिये ।
दोष — उनका मालिक उन्हें पुनः घर ले जा सकता है।
१२. दुष्ट-दुष्ट व्यक्ति दीक्षा के अयोग्य है। दुष्ट दो प्रकार का है
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(i) कषायदुष्ट- उत्कट कषाय वाला ।
एक साधु गोचरी गया, उसे अत्यन्त स्वादिष्ट व मसालेदार बडे मिले। उसे बडे अत्यन्तप्रिय थे । वह बडे लेकर गुरु के पास आया। गुरु ने सहज भाव से सारे बडे वापर लिये । यह देखकर साधु को बड़ा क्रोध आया। यद्यपि गुरु ने उससे क्षमा माँग ली तथापि उसका क्रोध शान्त नहीं हुआ । कुपित शिष्य ने गुरु से कहा- मैं तुम्हारे दाँत तोड़ दूँगा। गुरु ने सोचा कहीं यह मुझे असमाधि से न मार डाले । यह सोचकर योग्य शिष्य को आचार्य पद पर प्रतिष्ठित कर दूसरे गच्छ में सम्मिलित होकर अनशन ग्रहण कर लिया। जब उस साधु ने अन्य मुनियों से पूछा कि -- गुरु कहाँ गये ? साधुओं ने इसका कुछ भी जवाब न देकर मौन रहना उचित समझा। कहीं से पता लगाकर वह वहाँ पहुँच गया, जहाँ गुरु गये हुए थे । वहाँ रहे हुए मुनियों से पूछा कि मेरे आज ही कालधर्म हुआ है और शव परठ दिया गया है। शिष्य ने को उसका पाप-विचार विदित होने के कारण उससे प्रतिप्रश्न किया कि — तूं शव का क्या करेगा ? उसने कहा- मुझे देखना है । तब मुनियों ने उसे स्थान बता दियां और गुप्त रूप से उसके पीछे देखने गये कि वह शव का क्या करता है ? शिष्य ने वहाँ जाकर क्रुद्ध होकर पत्थर उठाया और गुरु के दाँत तोड़ते हुए कहा- क्या तुम्हें सासणवाल (सरसों के बडे ) खाने हैं? यह कषायदुष्ट आत्मा का दृष्टांत हैं । (ii) विषयदुष्ट - परस्त्री आदि में अत्यन्त आसक्त ।
गुरु कहाँ हैं ? मुनियों ने कहा उनका पूछा - शव कहाँ परठा है ? मुनियों
दोष- इसके अध्यवसाय अत्यन्त संक्लिष्ट होते हैं ।
१३. मूढ़ — मोहवश या अज्ञानवश वस्तु के यथार्थज्ञान से शून्य ।
दोष- मूढ़ आत्मा उपयोग शून्य होने से, जिसका आधार ज्ञान व विवेक है, ऐसी भागवती दीक्षा का पालन नहीं कर सकता ।
१४. जुंङ्गित — दूषित | इसके तीन भेद हैं
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