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प्रश्न- पूर्वाचार्यों द्वारा प्रदर्शित व्युत्पत्ति के अनुसार तीर्थंकर परमात्मा एवं गणधर भगवन्तों के द्वारा अर्थ व सूत्र रूप में सर्वप्रथम रचे जाने के कारण 'उत्पादादि' पूर्व कहलाये । पूर्वों में संपूर्ण सूत्रों का समावेश हो जाता है तो अंग व अंगबाह्यसूत्रों की अलग से रचना क्यों की ?
उत्तर - जगत के प्राणी विचित्र मति वाले हैं। कोई अल्पमति वाले हैं तो कोई तीव्रबुद्धि सम्पन्न हैं। जो अल्पबुद्धि वाले हैं वे अति गम्भीर अर्थ युक्त होने से पूर्वों का अध्ययन नहीं कर सकते, स्त्रियाँ अनधिकारी होने से पूर्वों का अध्ययन नहीं कर सकतीं। उनके अनुग्रहार्थ अंग व अंगबाह्य सूत्रों की रचना की गई है। कहा है कि- “ तुच्छ, गर्वयुक्त, चंचल व धैर्यहीन होने के कारण स्त्रियाँ उत्थानश्रुत आदि अतिशय सम्पन्न शास्त्र तथा दृष्टिवाद पढ़ने की अधिकारी नहीं हैं ।
विशेष—- पूर्वोक्त पाठ से स्पष्ट है कि साध्वियों के लिये कुछ विशेष सूत्रों को छोड़कर शेष सूत्रों के अध्ययन का निषेध नहीं है । मूलपाठ - 'अत्रातिशेषाध्ययनानि — उत्थानश्रुतादीनि विविधविशिष्टातिशयसंपन्नानि शास्त्राणि भूतवादो दृष्टिवाद: । ततो दुर्मेधसां स्त्रीणां चानुग्रहाय शेषाङ्गानामङ्गबाह्यस्य च विरचनम् ॥ ७१८ ॥
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द्वार ९२-९३
प्र. सा. टीका (पत्राङ्क २०९)
निर्ग्रन्थ-पंचक
पंच नियंठा भणिया पुलाय बउसा कुसील निग्गंथा । होइ सिणाओ य तहा एक्केक्को सो भवे दुविहो ॥७१९ ॥ गंथो मिच्छत्तधणाइओ मओ जे य निग्गया तत्तो ।
निग्गंथा वृत्ता तेसि पुलाओ भवे पढमो ॥ ७२० ॥ मिच्छत्तं वेयतियं हासाई छक्कगं च नायव्वं । कोहाईण चउक्कं चउदस अब्भितरा गंथा ॥७२१ ॥ खेत्तं वत्युं धणधन्नसंचओ मित्तनाइसंजोगो । जाणसयणासणाणि य दासा दासीउ कुवियं च ॥७२२ ॥ धन्नमसारं भन्नइ पुलायसद्देण तेण जस्स समं । चरणं सो हु पुलाओ लद्धीसेवाहि सो य दुहा ॥७२३ ॥ उवगरणसरीरेसुं बउसो दुविहो वि होइ पंचविहो । आभोग अणाभोए संबुड अस्संबुडे हुमे ॥७२४ ॥ आसेवणा कसा दुहा कुसीलो दुहावि पंचविहो ।
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