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________________ प्रवचन-सारोद्धार २८९ पाटि सचित्त पृथ्वी आदि पर अनंतर निक्षिप्त अशनादि संघट्टादि दोषों के कारण अग्राह्य है। परंपर निक्षिप्त में यदि संघट्टादि दोष टल सकते हों तो यतनापूर्वक ग्राह्य हैं। . तेजस्काय सम्बन्धित परंपर निक्षिप्त के विषय में कुछ विशेष बात है, जैसे—चूल्हे के साथ चारों ओर मिट्टी से लिप्त कढ़ाई में स्थित गन्ने का रस, यदि देते समय नीचे गिरने की सम्भावना न हो, कढ़ाई का मुँह चौड़ा हो, गन्ने का रस अधिक उष्ण न हो तो मुनि के लिये ग्राह्य है। देते समय यदि रस बिन्दु भूमि पर गिर भी जाये तो भी कोई दोष नहीं है, कारण कढ़ाई चारों ओर से लिप्त होने से बिन्दु मिट्टी पर ही गिरते हैं, आग में नहीं। अत: तेउकाय की विराधना नहीं होती। पात्र विशाल मुख वाला होने से रस लेते समय पात्र का ऊपरी हिस्सा टूटने की सम्भावना भी नहीं है। ___ अति गर्म इक्षुरस साधु को ग्रहण नहीं करना चाहिये, कारण पात्र गर्म हो जाने से लेने वाले मुनि व देने वाले गृहस्थ के हाथ जलने से आत्मविराधना की सम्भावना रहती है। जिस स्थान से इक्षुरस दिया जाता है, उस स्थान के गर्म होने से दात्री के जलने की सम्भावना है। अतिगर्म इक्षरसादि कष्टपर्वक ही दिया जाता है। देते समय हाथ जलने से शीघ्रता में पात्रं से बाहर भी गिर सकता है.... पात्र हाथ से छूट सकता है। इस प्रकार दाता, वस्तु व पात्र तीनों की हानि हो सकती है। ___हाथ जलने से मुनि पात्र को तथा दाता बर्तन को तुरन्त नीचे डाल दे, जिससे पात्र टूट जाये, रसादि गिरने से छ: काय के जीवों की विराधना हो, जीव विराधना के कारण संयम की विराधना हो, अत: अतिगर्म इक्षुरस मुनि को लेना नहीं कल्पता । ४. पिहित - ढकी हुई भिक्षा । पिहित के दो प्रकार हैं-१. सचित्त पिहित व २. अचित्त पिहित । १. सचित्त पिहित . - पृथ्वी आदि सचित्त पदार्थों से ढकी हुई भिक्षा । इसके दो भेद हैं-(i) अनन्तर सचित्त पिहित, (ii) परंपर सचित्त पिहित। (i) अनन्तर सचित्त पिहित• सचित्त पृथ्वी के ढक्कन से ढके हुए पूए आदि– पृथ्वीकाय पिहित । • बरफ आदि अप्काय पिंड से पिहित भिक्षा— अप्काय पिहित। • अंगारा डालकर वासित किये गये केर आदि- तेजस्काय पिहित । अंगारे पर वायु भी होती है, क्योंकि वायु के सिवाय आग जल ही नहीं सकती। अत: अंगारा डालकर हिंग आदि से वासित किये जाने वाले केर आदि तेजस् और वायु दोनों से पिहित कहलाते हैं। • फलादि से ढकी हुई भिक्षा-वनस्पतिकाय पिहित । . कीड़े-मकोड़ों से आच्छादित भिक्षा—त्रसकाय पिहित । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001716
Book TitlePravachana Saroddhar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1999
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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