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________________ भूमिका २६ में सूचित किया है ५६-५७ और ५८वें द्वार में सिद्धों की उत्कृष्ट-मध्यम और जघन्य अवगाहना की चर्चा की गई है । ५९वें द्वार में लोक की शाश्वत जिन प्रतिमाओं का उल्लेख है। ६०वें द्वार में जिन कल्प का पालन करने वाले मुनियों के और ६१वें द्वार में स्थविर कल्प का पालन करने वाले मुनियों के उपकरणों का उल्लेख है। इसी प्रसंग में स्वयंबुद्ध और प्रत्येकबुद्ध के स्वरूप की चर्चा भी की गई है। ६२वे द्वार में साध्वियों के उपकरणों की चर्चा है जबकि, ६३वाँ द्वार जिन कल्पिकों की संख्या के सम्बन्ध में विवेचन करता है। ६४वें द्वार में आचार्य के ३६ गुणों का निर्देश किया गया है इसी प्रसंग में आचार्य की ८ सम्पदाओं की भी विस्तार से चर्चा की गई है। ज्ञातव्य है कि यहाँ आचार्य के इन छत्तीस गुणों की चर्चा अनेक अपेक्षाओं से उपलबध होती है। ६५वे द्वार में जहाँ विनय के बावन भेदों की चर्चा है, वहीं ६६वे द्वार में चरणसत्तरी और ६७वें द्वार में करणसत्तरी का विवेचन है। पंच महाव्रत, दस श्रमण धर्म, सतरह प्रकार का संयम, दस प्रकार की वैयावृत्य, नौ ब्रह्मचर्य गुप्तियाँ, तीन रत्नत्रय, बारह तप और क्रोध आदि चार कषायों का निग्रह ये चरणसत्तरी के सत्तर भेद हैं। साथ ही प्रस्तुत कृति में यह भी बताया गया है कि अन्य-अन्य आचार्यों की कतियों में चरणसत्तरी के इन सत्तर भेदों का वर्गीकरण किस-किस प्रकार से किया गया है। करणसत्तरी के अन्तर्गत सोलह उद्गम दोषों, सोलह उत्पादन दोषों, दस एषणा दोषों, पाँच ग्रासैषणा दोषों, पाँच समितियों, बारह भावनाओं, पाँच इन्द्रियों का निरोध, तीन गुप्ति आदि की चर्चा की गई है। ६८वें द्वार में जंघाचरण और विद्याचारण लब्धि अर्थात् आकाश गमन सम्बन्धी विशिष्ट शक्तियों की चर्चा की गई है। ६९वें द्वार में परिहारविशुद्धितप के स्वरूप का और ७० वें द्वार में यथालन्दिक के स्वरूप का विवेचन किया गया है। ७१वें द्वार में अड़तालीस निर्यामको और उनके कार्य विभाजन की चर्चा है। निर्यामक समाधिमरण ग्रहण किये हुए मुनि की परिचर्या करने वाले मुनियों को कहा जाता है। ७२वें द्वार में पंच महाव्रतों की पच्चीस भावनाओं की विवेचना की गई है। इसी क्रम में ७३वाँ द्वार आसुरी आदि पच्चीस अशुभ भावनाओं का विवेचन करता है। ७४वें द्वार में विभिन्न तीर्थंकरों के काल में महाव्रतों की संख्या कितनी होती है इसका निर्देश किया गया है। ७५वे द्वार में चौदह कृतिकर्मों की चर्चा है। कृतिकर्म का तात्पर्य आचार्य आदि ज्येष्ठ मुनियों के वंदन से है। ७६वें द्वार में भरत, ऐरवत आदि क्षेत्रों में कितने चारित्र होते हैं, उसकी चर्चा करता है। प्रथम और अंतिम तीर्थंकर के समय में भरत और ऐरवत क्षेत्र में सामायिक आदि पाँच चारित्र पाये जाते हैं . किन्तु शेष बावीस तीर्थंकरों के समय में इन क्षेत्रों में सामायिक, सूक्ष्म सम्पराय और यथाख्यात ये तीन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001716
Book TitlePravachana Saroddhar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1999
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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