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________________ भूमिका इसी क्रम में २६वाँ द्वार तीर्थंकरों के शासन- सहायक यक्षों के नाम का उल्लेख करता है तो २७वाँ द्वार यक्षिणियों के नामों को सूचित करता है 1 प्रवचनसारोद्धार का २८वाँ द्वार तीर्थंकरों के शरीर के परिमाण (लम्बाई) का निर्देश करता है तो २९वाँ द्वार प्रत्येक तीर्थंकरों के विशिष्ट लांछन की चर्चा करता है । २४ ३०वें द्वार में तीर्थंकरों के वर्ण अर्थात् शरीर के रंग की चर्चा की गई है। ३१वाँ द्वार किस तीर्थंकर के साथ कितने व्यक्तियों ने मुनिधर्म स्वीकार किया उनकी संख्या का निर्देश करता है । ३२वाँ द्वार तीर्थंकरों की आयु का निर्देश करता है । ३३वें द्वार में प्रत्येक तीर्थंकर ने कितने-कितने मुनियों के साथ निर्वाण प्राप्त किया, इसका उल्लेख है, तो ३४वें द्वार में किस तीर्थंकर ने किस स्थान पर निर्वाण प्राप्त किया, इसका उल्लेख है । ३५वाँ द्वार तीर्थंकरों एवं अन्य शलाका पुरुषों के मध्य कितने-कितने काल का अन्तराल रहा है, इसका विवेचन प्रस्तुत करता है । जबकि ३६ वें द्वार में इस बात की चर्चा है कि किस तीर्थंकर का तीर्थ या शासन कितने काल तक चला और बीच में कितने काल का अन्तराल रहा। इस प्रकार हम देखते हैं कि ७वें द्वार से लेकर ३६ वें द्वार तक २९ द्वारों में मुख्यतः तीर्थंकरों से सम्बन्धित विभिन्न तथ्यों का. निर्देश किया गया है । ३७वें द्वार से लेकर ९७वें द्वार तक इकसठ द्वारों में पुन: जैन सिद्धान्त और आचार सम्बन्धी विवेचन प्रस्तुत किये गये हैं, यद्यपि बीच में कहीं कहीं तीर्थंकरों के तप आदि का भी निर्देश है । ३७वें द्वार में दस आशातनाओं का उल्लेख है, तो ३८वें द्वार में चौरासी आशातनाओं का उल्लेख है । इसी चर्चा के प्रसंग में इस द्वार में मुनि (यति) चैत्य में कितने समय तक रह सकता है, इसकी चर्चा भी हुई म है । ३९ वें द्वार में तीर्थंकरों के आठ महाप्रतिहार्यों और ४० वें द्वार तीर्थंकरों के चौतीस अतिशयों (विशिष्टताओं) की चर्चा है 1 ४१वाँ द्वार उन अठारह दोषों का उल्लेख करता है, जिनसे तीर्थकर मुक्त रहते हैं दूसरे शब्दों में जिनको उन्होंने नष्ट कर दिया है। ४२वाँ द्वार जिन शब्द के चार निक्षेपों की चर्चा करता है और यह बताता है कि ऋषभ, शान्ति, महावीर आदि जिनों के नाम नामजिन है जबकि कैवल्य और मुक्ति को प्राप्त जिन भावजिन अर्थात् यथार्थजन है। जिन - प्रतिमा को स्थापनाजिन कहा जाता है और जो भविष्य में जिन होने वाले हैं वे द्रव्यजिन कहलाते हैं । ४३ वाँ द्वार किस तीर्थंकर ने दीक्षा के समय कितने दिन का तप किया था, इसका विवेचन करता है इसी क्रम में ४४वें द्वार में किस तीर्थंकर को केवल - ज्ञान उत्पन्न होने के समय कितने दिन का तप था इसका उल्लेख है । आगे ४५ वें द्वार में तीर्थंकरों के द्वारा अपने निर्वाण के समय किये गये तप का उल्लेख है । Jain Education International For Private & Personal Use Only • www.jainelibrary.org
SR No.001716
Book TitlePravachana Saroddhar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1999
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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