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________________ प्रवचन - सारोद्धार २३ की भी चर्चा की गई है। साथ की चर्चा है। इसी क्रम में दस विकृतियों (विगयों) की बत्तीस अनन्तकायों की और बावीस अभक्ष्यों इसमें शुद्ध प्रत्याख्यान के कारण एवं स्वरूप का विवेचन भी है। पाँचवाँ कायोत्सर्ग द्वार है। इसके अन्तर्गत मुख्य रूप से कायोत्सर्ग के १९ दोषों की चर्चा की गई है। इसी क्रम में इन दोषों के स्वरूप का भी किञ्चित् दिग्दर्शन कराया गया है I 'प्रवचनसारोद्धार' का छठा द्वार श्रावक प्रतिक्रमण के अतिचारों का वर्णन करता है इसके अन्तर्गत संलेखना के पाँच, कर्मादान के पन्द्रह, ज्ञानाचार के आठ, दर्शनाचार के आठ, चारित्राचार के आठ, तप के बारह, वीर्य के तीन, सम्यक्त्व के पाँच, अहिंसा आदि पाँच अणुवत, दिक्वतों आदि तीन गुणव्रतों, एवं सामायिक आदि चार शिक्षाव्रतों- ऐसे श्रावक के बारह व्रतों के साठ अतिचारों का उल्लेख है I यह समस्त विवरण श्रावक प्रतिक्रमण के सूत्र के अनुरूप ही है । 'प्रवचनसारोद्धार' के ७ वें द्वारे में भरत एवं ऐरवत क्षेत्र में हुए तीर्थंकरों (जिन) के नामों की सूचि प्रस्तुत की गई है। इसके अंतर्गत जहाँ भरतक्षेत्र के अतीत, वर्तमान और अनागत तीनों चौविसियों के जिनों के नाम दिये गये हैं, वहीं ऐरवत क्षेत्र के वर्तमान काल के जिनों के ही नाम दिये गये हैं । हम देखते हैं कि 'प्रवचनसारोद्धार' के प्रथम सात द्वारों तक तो अपने भेद प्रभेदों के साथ विषयों का विस्तार से विवेचन हुआ है किन्तु ८वें द्वार से विवेचन संक्षिप्त रूप में ही किया गया है। इसी क्रम में 'अष्टमद्वार' चौबीस तीर्थकरों के प्रथम गणधरों के नामों का उल्लेख हुआ है । ९ वें द्वार के अंतर्गत प्रत्येक तीर्थंकर की प्रवर्त्तिनियों अर्थात् साध्वी प्रमुखाओं के नामों का उल्लेख किया गया है I १० वें द्वार के अन्तर्गत तीर्थंकर नाम-कर्म के उपार्जन हेतु जिन बीस स्थानकों की साधना की जाती है, उनकी चर्चा है । यह विवेचन ज्ञाताधर्मकथा के मल्ली अध्ययन में मिलता है । ११ वें द्वार में तीर्थंकरों की माताओं और पिताओं का उल्लेख है । १२वें द्वार में तीर्थंकरों की माता-पिता अपने देह का त्याग कर किस गति में उत्पन्न हुए इसकी चर्चा है। १३वें द्वार में किसी काल विशेष में जिनों की जघन्य और उत्कृष्ट संख्या का विचार किया गया है। १४वें द्वार के अन्तर्गत यह बताया गया है कि किस जिन के जन्म के समय लोक में अधिकतम और न्यूनतम जिनों की संख्या कितनी थी । १५ वें द्वार में जिनों के गणधरों की समग्र संख्या का विवेचन किया गया है। इसी क्रम में आगे १६ वें द्वार में मुनियों की संख्या का, १७वें द्वार में साध्वियों की संख्या का, १८वें द्वार में जिनों के वैक्रय-लब्धिधारक मुनियों की संख्या का, १९ वें द्वार में वादियों की संख्या का, २० वें द्वार में अवधिज्ञानियों की संख्या का, २१ वें द्वार में केवलज्ञानियों की संख्या का, २२वें द्वार में मनः पर्यवज्ञानियों की संख्या का, २३वें द्वार में चतुर्दश पूर्वों के धारकों की संख्या का, २४वें द्वार में जिनों के श्रावकों की संख्या का और २५वें द्वार में श्राविकाओं की संख्या का निर्देश हुआ है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001716
Book TitlePravachana Saroddhar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1999
Total Pages504
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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