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७. भोग-उपभोग परिमाण व्रत
(iii) सचित्त आहार
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(i) अपक्व आहार
बिना पकाये चांवल, गेहूँ, साग-सब्जी आदि अनाभोग व अतिक्रम से खाने में आ जाय तो अतिचार लगता है ।
प्रश्न — अपक्व औषधियाँ यदि सचित्त हैं तो उनको खाने में तीसरा अतिचार लगेगा। यदि वे अचित्त हैं तो खाने में कोई दोष ही नहीं होगा । अतः यह अतिचार व्यर्थ है ?
उत्तर - सत्यम्, तीसरा और चौथा अतिचार सचित्त फल व कंदादि से सम्बन्धित है जबकि प्रथम व द्वितीय अतिचार शाली आदि धान्य से सम्बन्धित है । विषयकृत भेद होने से सभी सार्थक हैं ।
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अथवा - आटा पीसने के बाद भी उसमें धान्य के कण रह जाते हैं। जब तक उसे पकाया न जाये उसमें सचित्तता की सम्भावना रहती है, किन्तु व्रती चूर्ण बन जाने के कारण उसे अचित्त समझकर खाता है । इससे उसका व्रत भंग न हो, इसलिये भी इस अतिचार का उपयोग है ।
(ii) दुष्पक्व आहार
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द्वार ६
दिशा में बढ़ा देना । इस प्रकार व्रत सापेक्ष घट-बढ़ होने से यह अतिचार रूप है । दूषण लगता है पर व्रतभंग नहीं होता ।।
अथवा अर्धकुट्टित इमली के यह अतिचार लगता है । यद्यपि ये उपभोक्ता द्वारा इनका उपयोग अचित्त
(iv) सचित्त प्रतिबद्ध
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भोगोपभोग की वस्तुओं का परिमाण करना । इसके १. अपक्व, २. दुष्पक्व, ३. सचित्त, ४. सचित्त- प्रतिबद्ध व ५. तुच्छौषधिभक्षण ये पाँच अतिचार हैं। वास्तव में श्रावक अचित्तभोजी ही होता है । इस अपेक्षा से यहाँ जो अतिचार घटते हैं वे ही बताये जाते हैं ।
आधे कच्चे, आधे पके हुए तन्दुल, जौ, गेहूँ, ककड़ी आदि फल जो कि यहाँ भी हानिकारक हैं तथा जितने अंश में वे सचित्त हैं परलोक में भी हानिकारक हैं उन्हें खाना अतिचार रूप है । खानेवाला उसकी पक्वता को ध्यान में रखते हुए खाता है अत: व्रत सापेक्ष होने से अतिचार ही लगता है । व्रतभंग नहीं होता । सजीव कन्द-मूल-फल, नमक आदि पृथ्वीकाय का भक्षण करना । सचित्त का त्यागी श्रावक सचित्त आहार कैसे कर सकता है ? यदि करता है तो व्रतभंग होता है अतः यह अतिचार घटित ही नहीं हो सकता । पर इसे अतिचार माना है इससे यह सिद्ध होता है कि अनाभोग, अतिक्रम से सचित्त का भक्षण करने वाले को ही यह अतिचार घटता है अन्य को नहीं ।
पत्ते, पूर्णतया नहीं उबला हुआ पानी आदि का उपयोग करने से सब त्याज्य होने से उपभोक्ता का व्रतभंग ही करते हैं, तथापि मानकर ही होता है अत: व्रत सापेक्ष होने से अतिचार रूप है । सचेतन वृक्ष संबद्ध गूंदे, पके हुए फल आदि तथा सचित बीज
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