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द्वार ६
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तथा स्वदार संतोषव्रत का पालन होने से व्रत अभंग रहता है अत: ये दोनों अतिचार रूप
ही समझना। अन्यमतानुसार
- स्वदारसन्तोषी, परस्त्री, वेश्यादि के साथ मैथुन नहीं कर सकता किन्तु आलिंगन, चुम्बन आदि देने का उसे त्याग नहीं है। जैसे कि वह स्वयं समझता है-मैंने मैथुन का त्याग किया है, आलिंगन आदि करने का नहीं। वैसे परदारवर्जक का भी समझना । उसने भी परस्त्री के साथ मैथुन-क्रिया करने का ही त्याग किया है। अत: दोनों के लिये व्रतसापेक्ष होने से तीव्र कामाभिलाष व
अनंगक्रीड़ा अतिचार रूप ही हैं। (V) परविवाहकरण कन्याफल की लिप्सा तथा स्नेहसम्बन्धवश दूसरों के अपत्यादि
का शादी-विवाह कराना 'परविवाहकरण' अतिचार है। स्वदारसंतोषी को स्वपत्नी के सिवाय अन्य के साथ व परदारवर्जक को स्वपत्नी और वेश्या के सिवाय अन्य के साथ मन, वचन और काया से मैथुन करने-कराने का नियम हो तो वे परविवाह नहीं करा सकते। कारण परविवाह मैथुन का कारण है और कराने वाले को मैथुन न करवाने का भी नियम है। किन्तु व्रतधारी विवाह कराते समय यह सोचता है कि मैं तो विवाह करवा रहा हूँ, न कि मैथुन सेवन कर रहा हूँ इस प्रकार व्रत सापेक्ष भाव होने से यहाँ व्रतभंग नहीं होता। पौत्र, दौहित्रादि की इच्छा अज्ञानतावश समकिती को भी होती है। मिथ्यादृष्टि भद्र परिणामी को अनुग्रहार्थ व्रत दे दिये हों तो
ऐसे व्रती को भी ऐसी इच्छा हो सकती है। प्रश्न—दूसरों का विवाह कराने में व्रत-भंग होता है तो अपने पुत्रादि का विवाह आदि करने में व्रत-भंग नहीं होता?
उत्तर--सत्यम् ! यदि अपने पुत्र-पुत्रादि का विवाह न किया जाये तो वे दुराचारी बन सकते हैं। इससे धर्म का उपहास होगा। विवाह कर दिया जाये तो पति-आदि का नियन्त्रण होने से कुमार्गगामी बनने की सम्भावना नहीं रहती। कहा है-कुमारावस्था में नारी का रक्षक पिता है, युवावस्था में भर्ता है, वृद्धावस्था में पुत्र है। इस प्रकार स्त्री की स्वतन्त्रता किसी भी अवस्था में योग्य नहीं है। कृष्ण महाराज, चेटक महाराज आदि ने अपने पुत्रादि की भी शादी नहीं करने का नियम लिया था। यह बात सत्य है, किन्तु परिवार में उत्तरदायित्व सम्भालने वाले अन्य व्यक्ति हों तभी यह नियम सम्भव हो सकता है अन्यथा नहीं। आज भी यदि किसी के कुटुम्ब में पुत्र-पुत्रादि की शादी-विवाह करने वाले दूसरे व्यक्ति मौजूद हों तो वह भी ऐसा नियम ले सकता है। इसमें कोई दोष नहीं है ।। २७७ ।।
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