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द्वार ६
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५. भाटककर्म - अपने वाहनों से दूसरों का माल ढोना, बैलगाड़ी आदि वाहनों
को किराये पर देना भाटककर्म है। ६. विषवाणिज्य - सभी प्रकार के जहर, प्राणघातक-धनुष-बाण, तलवार, छुरी,
भाला, कुदाली, फावड़ा आदि का व्यापार करना। यह जीवहिंसा
का कारण होने से पाप है। ७. लाक्षा-वाणिज्य - जिसमें असंख्य जीवों की हिंसा होती है ऐसी लाख, धातकी,
नील, पारा, हरताल, वज्रलेप आदि का व्यापार करना। ८. दंतवाणिज्य
हाथी दाँत, शंख, सीप, चर्म, केश, कस्तूरी, कौड़ी, भेरी आदि लाने के लिये पहले से भील आदि को पैसे देकर नियुक्त करना । स्वयं जंगल में जाकर खरीदना ताकि भील आदि हाथी, मृग आदि को मारकर दाँत, कस्तूरी आदि उपलब्ध करा सके। फिर
उनका व्यापार करना। ९. केशवाणिज्य - दास-दासी, हाथी-घोड़ा, गाय-भैंस, ऊँट-गधा आदि द्विपद, चतुष्पद
जीवों का क्रय-विक्रय कर आजीविका चलाना । सजीव का विक्रय ,
केशवाणिज्य है और निर्जीव का विक्रय दंतवाणिज्य है। १०. रसवाणिज्य - शहद, मक्खन, मांस, मदिरा, दूध, दही, घी, तेल आदि का व्यापार
करके आजीविका चलाना। ११. दवदान
- तृणादि को जलाने के लिये आग लगाना । यह सहेतुक व अहेतुक
दो तरह का है जैसे, कई जंगली लोक पुण्यबुद्धि से अपने परिवार को कह जाते हैं कि मेरे मरने के पश्चात् मेरे कल्याण के लिये इतने दीपोत्सव करना अर्थात् इतने तृणादि जलाना। नये तृण उगाने के लिये पुराने तृण जलाना ताकि गायों के लिये ताजा चारा पैदा हो। खेत को नई फसल के लिये साफ करने हेत
जलाना। १२. यंत्रवाहन - तिल, गन्ना, सरसों, एरण्डी, मूंगफली आदि को यन्त्र से पीलना,
अरहट्ट आदि से जल निकालना। शिला-लोढा, ऊखल-मूशल आदि का विक्रय करना। पीलने से तिलादि में रहे हुए जीवों की हिंसा होती है अत: ऐसा व्यापार सदोष है। लौकिक दृष्टि
से भी यह त्याज्य है। कहा है किदशसूनासमश्चक्री, दशचक्रिसमो ध्वजः । दशध्वजसमा वेश्या, दशवेश्यासमो नृपः ।।
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