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सम्पादकीय
११. पृथ्वीचन्द्रसूरि-यशोभद्रसूरि के प्रशिष्य श्री देवसेनगणि के शिष्य थे। इनका कल्पसूत्र
टिप्पणक प्राप्त है जो मुनि पुण्यविजयजी द्वारा प्रकाशित होकर प्रकाशित हो चुका है। १२. विजयसिंहसूरि-ये हरिभद्रसूरि के प्रशिष्य और जिनचन्द्रसूरि के शिष्य थे। इन्होंने
वाचक उमास्वाति रचित जम्बूद्वीपसमास पर विनेयजनहिता टीका की रचना सम्वत् १२१५
में की थी। १३. देवेन्द्रसूरि—ये धनेश्वरसूरि के शिष्य थे। इन्होंने मण्डली नगर में महावीर चैत्य की
प्रतिष्ठा की थी। १४. बालचन्द्रसूरि–इन्हीं देवेन्द्रसूरि की परम्परा में बालचन्द्रसूरि हुए। ये महाकवि थे। मंत्री
वस्तुपाल तेजपाल इनके भक्त थे। करुणावज्रायुध नाटक के प्रणेता थे। महाकवि आसड रचित विवेकमंजरी और उपदेश कंदली पर टीकाएँ एवं वसन्तविलास काव्य की रचना
की थी। १५. प्रद्युम्नसूरि-ये बालचन्द्रसूरि के शिष्य थे। इनकी रचित समरादित्य संक्षेप रचना प्राप्त
१६. नेमिचन्द्रसूरि-शान्तिभद्रसूरि की परम्परा में वैरस्वामी के शिष्य नेमिचन्द्रसूरि थे। वे
दर्शन शास्त्र के उद्भट विद्वान् थे। १७. माणिक्यचन्द्रसूरि-ये नेमिचन्द्रसूरि के प्रशिष्य और सागरचन्द्रसूरि के शिष्य थे। इनकी
निम्न कृतियाँ प्राप्त हैं-मम्मट कृत काव्यप्रकाश संकेत नामक टीका एवं पार्श्व चरित्र
(१२७६)। इस परम्परा के सभी लेखकों एवं साहित्यकारों का टिप्पणी में उल्लेख करने का यथासाध्य प्रयास किया गया है। यह ३-४ शताब्दी का लेखा-जोखा है। यह चन्द्रगच्छीय/राजगच्छीय परम्परा कौनसी शताब्दि तक चलती रही? इसके लिए शिलालेख व ग्रन्थ-प्रशस्तियों के आधार पर शोध आवश्यक है। धर्मसूरि/धर्मघोषसूरि से धर्मघोषगच्छ निकला। यह गच्छ सागरचन्द्रसूरि से चलता रहा। सम्भव है स्वतन्त्र परम्परा का विकास होने के कारण राजगच्छ परम्परा या तो कालान्तर में इसी में विलीन हो गई अथवा सामान्य रूप से चलती रही हो। इस धर्मघोष परम्परा में विक्रम संवत् २००० तक इसके दो-चार यति गुरांसा के रूप में विद्यमान थे। नागौर में गोपजी गुरांसा विद्यमान थे। अब यह परम्परा लुप्त हो चुकी है। इस परम्परा द्वारा प्रतिष्ठित सैंकड़ों मूर्तियाँ प्राप्त हैं। धर्मघोषगच्छ स्वतन्त्र रूप से विकसित होने के कारण इस परम्परा का और निर्मित साहित्य का यहाँ उल्लेख नहीं किया गया है।
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