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२४. तज्जाय
२५. नोसुमण
२६. नोसरसि
२७. कहंमणछित्ता
२८. परिसंभित्ता
२९. अणुट्टियाएकह
३०. संथार पायघट्टण
३१. चिट्ठ
३२. उच्चासण
३३. समासण
१४. दोष- ३२
१. अनाढ़िय
२. थद्द
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द्वार २
कि मुझे उपदेश देने वाले तुम कौन होते हो ? वस्तुतः गुरु को 'भगवान ! श्रीपूज्य !' आदि शब्दों से सम्बोधित करना चाहिये । गुरु जिन शब्दों में कहे, पुनः उन्हीं शब्दों में गुरु के सामने जवाब देना । आचार्य कहे- 'तूं बीमार की सेवा क्यों नहीं करता ? शिष्य जवाब दे - तुम क्यों नहीं करते? आचार्य कहे — 'तू प्रमादी है' शिष्य कहे- 'तुम आलसी हो ।'
वस्तुतः गुरु के प्रवचनादि की प्रशंसा करनी चाहिये कि 'अहो ! आपने बहुत अच्छा कहा ।' किन्तु शिष्य प्रशंसा न करके गुरु व्याख्यान देते हों तब मन बिगाड़े, मुँह बिगाड़े।
गुरु व्याख्यान देते हों तब शिष्य बीच में कहे- 'आपको याद नहीं है, इसका अर्थ इस तरह नहीं है ।'
चालू व्याख्यान के बीच 'अब मैं कथा कहूँगा,' ऐसा कहकर गुरु का व्याख्यान भङ्ग करे ।
पर्षदा जब प्रवचन में तन्मय हो रही हो तब ऐसा कहकर कि 'प्रवचन कितना लम्बा करोगे, अब गोचरी का समय हो गया है, सूत्र - पोरसी का समय हो गया है' इस तरह प्रवचन सभा भङ्ग
करना ।
गुरु के प्रवचन के बीच अपनी विद्वत्ता बताने हेतु शिष्य द्वारा सभा को यह कहना कि 'देखो, आप अच्छी तरह से नहीं समझे होंगे, मैं आपको अच्छी तरह विस्तार से समझाता हूँ ।'
गुरु के संथारे, शय्या आदि को पैर लगने पर या अनुमति के बिना छूने पर क्षमायाचना नहीं करना । शय्या = शरीर प्रमाण बिछौना, संथारा ढाई हाथ प्रमाण ।
गुरु के संथारे पर सोना, बैठना या करवट बदलना । गुरु के संमुख ऊँचे आसन पर बैठना ।
गुरु के सामने समान आसन पर बैठना ।। १२९ - १४९ ॥ निम्न ३२ दोषों से रहित वन्दना करना शुद्ध वन्दन है । अनादर से उत्सुकता के बिना वन्दना करना । जात्यादि मद से गर्वित होकर वन्दना करना स्तब्ध दोष युक्त वंदन है । द्रव्य और भाव के भेद से गर्वित दो तरह के हैं । इनकी चतुर्भगी बनती है। चतुर्भंगी
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