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फैसला कराने के लिये दोनों ने राजा के पास जाने का निर्णय किया। वे दोनों जा रहे थे कि रास्ते में उन्हें मुनि के दर्शन हुए। एक ने विचार किया कि मुनि के दर्शन से मेरा काम अवश्य सिद्ध होगा और वह मुनि को प्रदक्षिणापूर्वक वन्दन करके राज दरबार में गया। दूसरे सेवक ने उसके देखा-देखी मुनि को वन्दना की राजसभा में चर्चा- विचारणा करते हुए भाव-पूर्वक वन्दन करने वाले के पक्ष में निर्णय हुआ और दूसरे सेवक की पराजय हुई।
प्रथम राजसेवक का भाव- पूर्वक वन्दन भाव- पूजा कर्म तथा अनुकरण रूप होने से दूसरे का द्रव्य पूजा कर्म है ॥ १२८ ॥
१३. गुरुसम्बन्धी आशातना ३३१, २, ३. पुरओ
४, ५, ६. पक्खासन्न
७, ८. ताचिणनिसीयण
९. अपवाद
१०. आयमण ११. आलोय
१२. अप्पणि
१३. पुव्वालवण
१४. आलो
१५. उवदंस
१६. निमंतण
१७. खद्ध
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द्वार २
३
बिना कारण गुरु के आगे चलना, खड़े रहना या बैठना बिना कारण गुरु के पीछे / नजदीक में चलना, खड़े रहना या बैठना = ३
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बिना कारण गुरु के दायें / बायें चलना, खड़े रहना, बैठना = ३ विनयभङ्ग आगे चलने से गुरु को पीठ पीछे नजदीक चलने से खांसी, छींक आदि के कारण थूक आदि उछलने से आशातना, दायें-बायें चलने से गुरु की बराबरी। इसी तरह खड़े रहने व बैठने के भी दोष समझना ।
मार्गदर्शनादिके तु कारणे न दोषः रास्ता दिखाने के लिये आगे चलने में कोई दोष नहीं है।
स्थंडिल से लौटकर आचार्य से पहले हाथ-पाँव धोना ।
स्थंडिलादि बहिर्भूमि से लौटकर गुरु से पहले गमन - आगमन विषयक आलोचना करना ।
रात में 'रत्नाधिक' पूछे कि कौन सो रहा है ? कौन जग रहा है ? तब जागृत होने पर भी जवाब न देना ।
गुरु
के साथ बातचीत करने आये हुए व्यक्ति से गुरु पूर्व शिष्य का बातचीत करना ।
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भिक्षादि लाकर पहले अन्य के समक्ष आलोचना करके पश्चात् गुरु के समक्ष आलोचना करना ।
गौचरी आदि पहले अन्य मुनि को बताकर पश्चात् गुरु को दिखाना ।
गौरी आदि लाकर गुरु को निमन्त्रण देने से पहले अन्य साधुओं . को निमन्त्रण देना ।
गौचरी लाने के बाद आचार्य, गुरु आदि के योग्य अशनादि
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