________________
जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
तक के सभी जीवों में होता है। यहाँ पर प्रश्न उठता है कि निगोद जीव की अत्यल्प विकसित अवस्था मानी जाती है। क्या उस अवस्था में उपयोग हो सकता है? उत्तर में कहा गया है कि निगोद में भी जीव का अक्षर के अनन्तवें भाग जितना ज्ञान अवश्य होता है; क्योंकि इतना भी ज्ञान या उपयोग न हो तो निगोद के जीव और जड़ में क्या अन्तर रहेगा? इसका स्पष्टीकरण यह होगा कि संसार में प्रत्येक जीव में उपयोग अर्थात् ज्ञानात्मक गुण होता है; पर जीव के विकास की अपेक्षा से भिन्न-भिन्न प्रकार का होता है अर्थात् उसमें तारतम्य रहता है। सिद्धों में उपयोग अर्थात ज्ञान-दर्शन गुण पूर्ण विकसित होते हैं; जबकि निगोद के जीव में वे सबसे कम विकसित होते हैं।
निगोद के जीवों का उपयोग अतिमन्द या अल्प विकसित होता है। अन्य जीवों का उपयोग उनके ऐन्द्रिक एवं मानसिक विकास के आधार पर क्रमशः विकसित होता जाता है। केवली की अवस्था में उपयोग अर्थात् ज्ञान-दर्शन गुण पूर्ण विकसित होता है। जीव के साथ कर्मों का आवरण होने के कारण कर्मों की तरतमता बनी रहती है।
१. ज्ञानोपयोग के भेद :
उत्तराध्ययनसूत्र की टीका'६७ में भी सर्वप्रथम उपयोग के दो भेद (१) ज्ञानोपयोग; और (२) दर्शनोपयोग - प्रतिपादित किये गए हैं। विषय का सामान्य बोध होना दर्शनोपयोग और विशेष बोध होना ज्ञानोपयोग साकार उपयोग कहलाता है। अज्ञान और ज्ञान के आधार पर नियमसार६८ में ज्ञानोपयोग के आठ प्रकार बताये गये हैं - पाँच ज्ञान और तीन अज्ञान : (१) मतिज्ञान;
(२) श्रुतज्ञान; (३) अवधिज्ञान; (४) मनःपर्यवज्ञान;
१६७ उत्तराध्ययनसूत्र टीका :
(क) पत्र २७६६ (भावविजयजी); (ख) पत्र २७७१ (शान्त्याचार्य); और
(ग) पत्र २७८६ (कमलसंयमोध्याय) । १६८ नियमसार ११-१२ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org