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जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
प्रकृति में शुभाशुभभाव घटित नहीं होते। अतः वह पुण्य-पाप की कर्ता नहीं हो सकती। यदि पुरुष अकर्ता है और प्रकृति अचेतन होने से शुभाशुभकर्मों की कर्ता नहीं हो सकती, तो फिर पुण्य-पाप आदि का कर्ता कौन है; यह निश्चय करना कठिन होगा।
पुनः सांख्यदर्शन पुरुष (आत्मा) को अकर्ता मानकर भी उसे भोक्ता भी मानता है, तो जैन दार्शनिकों का प्रश्न होगा कि जो कर्ता नहीं है वह भोक्ता कैसे होगा? यदि सांख्य दार्शनिक पुरुष को भोक्ता मानते हैं, तो उन्हें उसे कर्ता भी मानना पड़ेगा। अन्यथा उन पर अकृतभोग का दोष आयेगा।१६ __तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक के अनुसार सांख्यों का यह कथन कि
आत्मा या पुरुष तो अकर्ता है, किन्तु वह प्रकृति के द्वारा किये गये कार्यों का उपभोग करता है, उचित नहीं है। व्यवहार में भी यह देखा जाता है कि जो काम करता है, वही उसके फल का भोग करता है। यदि पुरुष अकर्ता है और प्रकृति ही कर्ता है, तो उसे ही भोक्ता मानना चाहिये।२० किन्तु अचेतन प्रकति भोक्ता कैसे होगी ? यदि यह मानें कि एक के द्वारा किए गये कार्यों के फल का भोग दूसरा करता है तो फिर एक के भोजन करने से दूसरे को तृप्त होना चाहिए। अतः यह कथन लोक व्यवहार के विपरीत है। यदि अचेतन प्रकृति को कर्ता माना जायेगा, तो घटादि जड़ पदार्थों को भी कर्ता मानना पड़ेगा।
अकलंकदेव ने कहा है कि यदि पुरुष (आत्मा) अकर्ता है तो फिर प्रकृति के द्वारा किये गये कार्यों से आत्मा (पुरुष) की मुक्ति नहीं हो सकती है।२२ सांख्यों ने पुरुष को कर्ता तो नहीं माना, किन्तु भोक्ता माना है।
जैनदर्शन संसारी आत्मा को अपने शुभाशुभ कर्मों का
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११६ आप्तपरीक्षा, पृ. ११४ ।
तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक २४६ ।। 'प्रधानेन कृते धर्मे मोक्षभागी न चेतनः । परेण विहिते भोगे तृप्तिभागी कुतः परः ।।। उक्त्वा स्वयमकर्तारं, भोक्तारं चेतनं पुनः ।
भाषमाणस्य सांख्यस्य न ज्ञानं विद्यते स्फुटम् ।।' १२२ तत्त्वार्थवार्तिक २०/१०/१ ।
-श्रावकाचार (अमितगति ४/३४-३८) ।
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