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________________ जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा आचार्य गणरत्न का कहना है कि जो जीव जिन कर्मों का कर्ता होता है, उन्हीं कर्मों का भोक्ता भी होता है। व्यवहार में भी जो फसल बोता है, वही काटता भी है। यदि सांख्य दार्शनिक एक ओर पुरुष को अकर्ता बताते हैं और दूसरी ओर उसे प्रकृति का भोक्ता भी मानते हैं तो उनका यह सिद्धान्त समीचीन नहीं हो सकता।१२ जैनदर्शन का यह मानना है कि एकान्त रूप से आत्मा को अकर्ता मानने पर उसमें अर्थक्रिया का अभाव होता है और जिसमें अर्थक्रिया नहीं होती उसे सत् नहीं कहा जा सकता। अतः यदि आत्मा को सत् वस्तु माना जाता है, तो उसे कर्ता मानना होगा; चाहे हम उसे ज्ञानरूप, दर्शनरूप परिणामों का कर्ता क्यों न माने। सांख्य दार्शनिकों का यह आक्षेप है कि यदि आत्मा को कर्ता मानते हो, तो फिर मुक्त आत्मा को भोक्ता मानना पड़ेगा और यदि ऐसा मानेंगे तो मुक्त अवस्था को कृत्यकृत्य स्थिति नहीं माना जा सकेगा। इसके उत्तर में जैन दार्शनिकों का कहना है कि संसारी आत्मा जब तक कर्मों से युक्त है, तब तक ही वह पुद्गल रूप कर्मों का कर्ता और भोक्ता है। मुक्तात्मा तो अपनी ज्ञाताद्रष्टा रूप पर्यायों का कर्ता और भोक्ता होती है। ४. अकर्तृत्व में दोष डॉ. सागरमल जैन ने आत्म अकर्तृत्ववाद में निम्न दोष दिखाये हैं :११३ १. यदि आत्मा अकर्ता है, तो उसे शुभाशुभ कर्मों के लिए उत्तरदायी भी नहीं माना जा सकेगा। २. यदि आत्मा अकर्ता है, तो वह शुभाशुभ कर्मों का कर्ता भी नहीं होगी और शुभाशुभ की कर्ता नहीं होने से वह बन्धन में नहीं आवेगी और अपने शुभाशुभ कर्मों के लिए उत्तरदायी नहीं होगी। ३. उत्तरदायित्व के अभाव में नैतिकता का प्रत्यय अर्थहीन होता है, यदि आत्मा को अकर्ता माना जाए, तो उत्तरदायित्व की व्याख्या सम्भव नहीं होगी। ११२ षड्दर्शनसमममुच्चय टीका, प्र. २३६ । १३ 'जैन बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन' भाग १ पृ. २२३ । -डॉ. सागरमल जैन । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001714
Book TitleJain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyalatashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Soul
File Size8 MB
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