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विषय प्रवेश
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उनकी भोक्ता है। दुष्प्रतिष्ठित आत्मा ही अपनी शत्रु होती है और सुप्रतिष्ठित आत्मा ही अपनी मित्र होती है। निश्चयनय से संसार में न तो कोई दूसरा व्यक्ति किसी को सुखी करता है और न वह किसी को दुःखी करता है; किन्तु आत्मा स्वयं स्वोपार्जित कर्मों से ही सुखी-दुःखी होती है। उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि :
“अप्पा नई वेयरणी अप्पा मे कूडसामली
अप्पा कामदूहा घेणु अप्पा मे नंदणं वणं ।”६२ अर्थात् आत्मा ही वैतरणी नदी एवं कूटशाल्मली वृक्ष है और यही कामधेनु एवं नन्दनवन भी है अर्थात् आत्मा स्वयं ही अच्छा व बुरा कर्म करके अपना हित या अहित करती है। जो आत्मा असत्कर्म करती है वह वैतरणी नदी या कूटशाल्मली वृक्ष के समान है। वह अपनी ही शत्रु है। किन्तु जो सत्कर्म करती है वह आत्मा कामधेनु या नन्दनवन के समान अपनी ही मित्र बनती है। जीव जैसा करता है, वैसा ही फल पाता है। जीव के सुख-दुःख का कर्ता ईश्वर है, यह एक भ्रान्त अवधारणा है। जो जीव अच्छे कर्म करता है, वह सुखी होता है एवं जो बुरे कर्म करता है, वह दुःखी होता है। सुखी और दुःखी होना जीव के स्वयं के कर्मों पर आधारित है। इसलिए जीव को कर्ता कहा गया है।
वेदान्तदर्शन में आत्मा को सत् चित् एवं आनन्द रूप स्वीकार किया गया है।६३ जैनदर्शन में भी आत्मा को आनन्दस्वरूप माना गया है। जैनदर्शन के अनुसार अनन्त सुख या आनन्द आत्मा का मूल गुण है।६४ कषाय अर्थात राग-द्वेषादि के क्षय होने पर ही आत्मा समस्त तनावों से मुक्त होकर स्वयं अनन्तसुख या आनन्द की अनुभूति कर सकती है।६५ अपने आत्मगुणों को प्रकट करने की अपेक्षा से उसे उनकी कर्ता कहा गया है।
" उत्तराध्ययनसूत्र २०/३७ ।
उत्तराध्ययनसूत्र २०/३६ । ६३ गीता २/२४, १३/३२ । ६० समयसार, आत्मख्याति टीका गा. ८६, कलश ७५ एवं ८३ । ६५ वही कलश १०४-०७ ।
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