SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 75
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा 1 अशुभ परिणामों का परिणमन होना ही आत्मा का कर्तृत्व है। विभिन्न नयों के आधार पर आत्मा को कर्ता बतलाते हुए जैनदर्शन में कहा गया है कि आत्मा द्रव्यकर्म, नोकर्म अर्थात् शरीरादि एवं घट-पटादि बाह्य पदार्थों की कर्ता है । यह व्यवहारनय का कथन है । आत्मा शुभाशुभ भाव - कर्मों की कर्ता है यह अशुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा से माना जाता है । किन्तु आत्मा अपने ज्ञाता, द्रष्टा, स्व-स्वभाव की कर्ता है; यह शुद्ध निश्चयनय से माना जाता है कहा भी है- “ व्यवहार से जीव ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्मों तथा औदारिकशरीर, आहारादि पर्याप्तिरूप नोकर्मों का और घट - पटादि बाह्य पदार्थों का कर्ता है । किन्तु वह राग-द्वेषादि भावकर्मों का कर्त्ता है, यह कथन अशुद्ध निश्चयनय के अनुसार है और शुद्ध- - चेतन - ज्ञान - दर्शन स्वरूप शुद्ध भावों का कर्त्ता है, यह शुद्ध निश्चयनय का कथन है । यह अवधारणा द्रव्यसंग्रह टीका, श्रावकाचार आदि ग्रन्थों में मिलती है। कुन्दकुन्दाचार्य के समयसार" से भी इस कथन की पुष्टि होती है । वे कहते हैं कि ३० अर्थात् आत्मा व्यवहारनय से घट - पटादि बाह्य पदार्थों, शरीरादि नोकर्म और ज्ञानावरणादि द्रव्य कर्मों की कर्त्ता है । कार्तिकेयानुप्रेक्षा में स्वामी कार्तिकेय ने भी कहा है कि जीव कर्त्ता है; क्योंकि कर्म, नोकर्म तथा अन्य समस्त क्रियाएँ उसके द्वारा ही की जाती हैं । मात्र यही नहीं जीव संसार में द्रव्य, क्षेत्र, काल, एवं भाव के अनुरूप आत्म पुरुषार्थ से मोक्ष को भी उपार्जित कर सकता है, अतः वह कर्त्ता है। उत्तराध्ययनसूत्र में भी आत्मा स्वयं को अपने सुख-दुःखादि की कर्त्ता एवं भोक्ता कहा गया है : “अप्पा कत्ताविकत्ता य दुहाण य सुहाण य । अप्पामित्तंममित्तं च दुष्पट्ठिय सुपट्टिओ।” आत्मा स्वयं अपने सुख-दुःख की कर्त्ता है और स्वयं ही ८७ ८८ ct “ववहारेण दु एवं करेदि घडपडरथाणि दव्वाणि । करणाणि य कम्माणि य णोकम्मणिह विविहाणी । " ६० पंचास्तिकाय, तात्पर्यवृत्ति चूलिका गा. ५७ । द्रव्य संग्रह टीका ८; श्रावकाचार ( वसुनन्दि ) ३५ । समयसार ६८ । कार्तिकेयानुप्रेक्षा १८८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001714
Book TitleJain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyalatashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Soul
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy