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जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
रूप में स्वीकार करती है। उसमें आत्मा के सम्बन्ध में जैनदर्शन के समान ही कहा गया है - “शस्त्र आत्मा का छेदन नहीं कर सकते, अग्नि उसे जला नहीं सकती, न जल द्वारा भिगोया या वायु द्वारा सुखाया जा सकता है। वह अछेद्य एवं अभेद्य है अर्थात
आत्मा नित्य है।"६० यद्यपि भारतीय दर्शनों में बौद्ध एवं चार्वाकदर्शन को अनात्मवादी कहा जाता है किन्तु चार्वाकदर्शन और बौद्धदर्शन के अनात्मवाद में कुछ भिन्नता है। चार्वाकदर्शन के अनुसार चैतन्य-विशिष्ट देह को ही आत्मा माना गया है, देह के नष्ट होते ही चेतना भी सदा के लिए नष्ट हो जाती है। इस प्रकार चार्वाकदर्शन चेतनायुक्त शरीर को ही आत्मा मानकर देह से उसकी अभिन्नता को प्रतिपादित करता है। अतः वह देहात्मवादी है। वह आत्मा को अनित्य मानता है। अतः वह आत्मउच्छेदवादी है; जबकि भगवान् बुद्ध ने आत्मा के सम्बन्ध में जो सिद्धान्त दिया है, वह अनुच्छेद अशाश्वतवाद का है अर्थात् उनके अनुसार आत्मा एकान्त रूप से न तो विनाशशील है और न ही एकान्त रूप से नित्य है। बौद्धदर्शन के अनात्मवाद का अभिप्राय आत्मा के अस्तित्व की अस्वीकृ ति नहीं है। वह उसकी कूटस्थ-नित्यता की अस्वीकृति है। बौद्धदर्शन में आत्मा को उत्पाद-व्यय धर्मी अर्थात् सतत परिवर्तनशील माना गया है। वह कूटस्थ-नित्य आत्मा की सत्ता को अस्वीकार करता है किन्तु आत्मसन्तति अर्थात् चित्तधारा को स्वीकार करता है। ___इस प्रकार जहाँ चार्वाकदर्शन में देहात्मवाद को स्वीकार किया गया है और शरीर के समान आत्मा को भी विनाशशील माना गया है, वहाँ बौद्धदर्शन में विज्ञान स्कन्ध या चेतना प्रवाह को आत्मा
५६ (क) 'अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शारीरिणः ।
अनाषिनोऽप्रमेयस्य तस्मायुध्य भारत ।। १८ ।।' (ख) 'न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं, भूत्वा भविता वान भूयः ।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो, न हन्यते हन्यमाने शरीरे ।। २० ।।' (ग) 'नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः । न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुत्तः ।। २३ ।।'
___ -गीता अध्याय २ (तुलना करें आचारांगसूत्र १/३/३) । ६० 'अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च । नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः ।। २४ ।।'
-गीता अध्याय २ । ६१ 'बौद्धदर्शन तथा अन्य भारतीय दर्शन' पृ. ४३६-४४० ।
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