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जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
सिद्ध पर्याय का उत्पाद हुआ है। उसकी अपेक्षा से भी सिद्धों में भी उत्पाद-व्यय घटित होता है।
आत्मा एक स्वतन्त्र तत्त्व है
जैनदर्शन में आत्मा को एक स्वतन्त्र तत्त्व माना गया है। उसके अनुसार कभी जड़ से चेतन की उत्पत्ति नहीं होती है। सूत्रकृतांग की टीका में जड़ से चेतन की उत्पत्ति मानने सम्बन्धी मान्यता का निराकरण किया गया है। सूत्रकृतांग की टीका में शीलांकाचार्य लिखते हैं- "भूत समुदाय स्वतन्त्रधर्मी है; उसका गुण चैतन्य नहीं हो सकता है; जैसे रूक्ष बालुका-कणों के समुदाय में तेल का अभाव होने से उनको पैरने पर तेल की उत्पत्ति नहीं होती है। वैसे ही जड़ तत्त्वों में चेतना लक्षण का अभाव होने से उनके संयोग से भी चेतन गुण प्रकट नहीं हो सकता। अतः चैतन्य आत्मा का ही गुण हो सकता है। जड़ भूतों से चैतन्य लक्षणयुक्त आत्मतत्त्व की उत्पत्ति नहीं हो सकती।"५० भगवद्गीता में भी कहा गया है कि असत् से सत् का प्रादुर्भाव नहीं होता और सत् का विनाश नहीं होता। यदि जड़ भूतों में चेतना असत् है तो फिर उनमें से चेतना की उत्पत्ति सम्भव नहीं है।"
आत्मा की जड़ से भिन्नता सिद्ध करने के लिए शीलांकाचार्य एक दूसरी युक्ति भी प्रस्तुत करते हैं। वे लिखते हैं कि पाँचों इन्द्रियों के विषय अलग-अलग हैं। प्रत्येक इन्द्रिय अपने विषय का
(क) 'अप्पा बुज्झहि दब्बु तुहुँ गुण पुणु दंसणु णाणु।।
पज्जय चउ-गइ-भाव तणु कम्म-विणिम्मिय जाणु ।। ५८ ।।' -परमात्मप्रकाश । (ख) 'अप्पा कम्म-विवज्जियउ केवल-णाणे जेण । लोयालोउ वि मुणइ जिय सव्वगु वुच्चइ तेण ।। ५२ ।।'
-वही । (ग) 'कारण-विरहिउ सुद्ध-जिउ बढइ खिरइ ण जेण ।। चरम-शरीर पमाणु जिउ जिणवर बोल्लहिं तेण ।। ५४ ।।'
-वही । (घ) 'अट्ठ वि कम्मइँ बहुविहइँ णवणव दोस वि जेण।। सुद्धहँ एक्कु वि अत्थि णवि सुण्णु वि वुच्चइ तेण ।। ५५ ।।'
-वही । ५० सूत्रकृतांगटीका १/१/८ । ५१ 'नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः । उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः ।।'
- भगवद्गीता २/१६ ।
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