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जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
१६. पाँच वर्णों के पुष्पों की वृष्टि होना;
१७. नख और केशों का नहीं बढ़ना;
१८. कम से कम एक कोटि देवों का पास में रहना; और १६. अनुकूल ऋतुओं का होना ।
दिगम्बर परम्परा में १० सहज अतिशय, १० कर्मक्षयज अतिशय तथा १४ देवकृत अतिशय ऐसे ३४ अतिशय स्वीकार किये गए हैं। समवायांगसूत्र में बुद्ध या तीर्थंकर के ३४ अतिशय (विशिष्ट गुण) उपलब्ध होते हैं । समवायांग के टीकाकार अभयदेव सूरी ने भी बुद्ध शब्द का अर्थ तीर्थंकर किया है। समवायांग की सूची में उपर्युक्त विविध वर्गीकरणों के निम्न उप प्रकार समाहित हैं: 9. तीर्थंकरों के सिर के बाल, दाढ़ी, मूँछ, रोम व नख बढ़ते नहीं हैं, हमेशा एक ही स्थिति में रहते हैं;
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उनकी देह हमेशा रोग तथा मल से रहित होती है;
२.
३. उनका मांस तथा खून गो दुग्ध सदृश श्वेत वर्ण का होता है; उनका श्वासोच्छवास कमल के समान सुगन्धित होता है; उनका आहार और निहार (मूत्रपुरीषोत्सर्ग) दृष्टिगोचर नहीं होता;
४.
५.
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६. वे धर्म चक्र का प्रवर्तन करते हैं;
७.
उनके ऊपर तीन छत्र लटकते रहते हैं;
उनके दोनों ओर चामर हैं;
८.
६.
स्फटिक रत्न के सदृश रत्न सिंहासन होता है; १०. अनेक लघुपताका से ओतप्रोत इन्द्रध्वज आगे चलता है; ११. जहाँ-जहाँ अरिहन्त परमात्मा विचरण करते हैं, ठहरते हैं और बैठते हैं, वहाँ-वहाँ यक्षदेव छत्र, सघट, सपताका एवं पत्र - पुष्पों से परिव्याप्त अशोक वृक्ष की संरचना करते हैं;
१२. परमात्मा के मस्तक के पीछे दशों दिशाओं को प्रकाशित करने वाला तेज प्रभामण्डल होता है;
१३. वहाँ की भूमि समतल तथा सुन्दर हो जाती है;
१४. कण्टक अधोमुख हो जाते हैं;
१५. ऋतुएं अनुकूल (सुखस्पर्श) हो जाती हैं;
१६. एक योजन के क्षेत्र में समवर्तक वायु से वातावरण की शुद्धि हो जाती है;
१५७ समवायांग टीका, अभयदेवसूरि पृ. ३५ ।
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