________________
परमात्मा का स्वरूप लक्षण, और प्रकार
३३५
३. गाय के दुग्ध के सदृश स्वच्छ, दुर्गन्ध रहित मांस एवं रूधिर;
४. चर्मचक्षुओं से आहार और नीहार का न दिखना। २. कर्मक्षयज अतिशय : १. योजनमात्र में समवसरण में क्रोड़ाक्रोडी सुर-नरेन्द्रों और तिर्यंचों
का समा जाना; .. २. तीर्थंकर परमात्मा की वाणी एक योजन तक फैली रहती है।
उनकी वाणी अतिशययुक्त अर्धमागधी होती है। अतः मनुष्य, तिर्यंच तथा देवता सभी अपनी-अपनी भाषा में समझ जाते है; ३. सूर्य के प्रकाश के समान प्रभामण्डल का होना; ४. सौ योजन तक रोग का नहीं होना; ५. वैर का नहीं होना; ६. ईति अर्थात् धान्यादि को नाश करने वाले चूहों आदि का
अभाव; ७. महामारी आदि उपद्रवों का नहीं होना; ८. अतिवृष्टि न होना; ६. अनावृष्टि न होना; १०. दुर्भिक्ष न पड़ना; और
११. स्वचक्र और परचक्र का भय न होना। ३. देवकृत अतिशय :
१. आकाश में धर्मचक्र का होना; २. आकाश में चमरों का होना; ३. आकाश में पादपीठ सहित उज्ज्वल सिंहासन ४. आकाश में तीन छत्र; ५. आकाश में रत्नमय धर्मध्वज; ६. सुवर्ण कमलों पर चलना; ७. समवसरण में रत्न, सुवर्ण और चाँदी के तीन परकोटे; ८. चारों दिशाओं में परमात्मा का मुख दिखाई देता है; ६. चैत्यवृक्ष; १०. कण्टकों का अधोमुख हो जाना; ११. वृक्षों का झुक जाना; १२. दुन्दुभि का बजना; १३. अनुकूल वायु का बहना; १४. पक्षियों का प्रदक्षिणा देना; १५. गन्धोदक की वृष्टि होना;
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org