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परमात्मा का स्वरूप लक्षण, और प्रकार
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जो आत्मा के ही स्वभाव हैं, वे स्वतः ही प्रकट होते हैं।५० जैसे स्वर्ण पर से रज हटने पर वह चमकता है, वैसे ही मोहनीय आदि घातीकों के क्षय हो जाने पर कुन्दन के समान आत्मा का शुद्ध स्वरूप प्रकट होता है।
वे आगे लिखते हैं कि परमात्मा मोह रहित वीतराग दशा को प्राप्त हैं। वे तीन लोक एवं समस्त व्यापार को देखने-जानने वाले होने पर भी स्वाभाविक रूप से उनकी शुद्ध परिणति बनी रहती है। जैसे दर्पण में सभी प्रतिबिम्बित होता है किन्तु वह उससे अप्रभावित रहता है, वैसे ही उन्हें कुछ करना शेष नहीं रहता। फिर भी उनमें अनन्तवीर्य अर्थात् अनन्तशक्ति प्रकट रूप में रहती
श्रीमद् राजचन्द्रजी परमात्मा के स्वरूप को अभिव्यक्त करते हुए पनः लिखते हैं कि साधक आत्मा के चार कर्म क्षीण होने पर वेदनीयादि चार कर्म शेष रहते हैं। वे कर्म जली हुई रस्सी के सदृ श हैं - जैसे वह रस्सी रूप दिखती है, किन्तु राख रूप होने से बन्धन में समर्थ नहीं होती। जब तक आयुष्यकर्म है तब तक अरहन्त परमात्मा को देह में रहना पड़ता है, किन्तु आयुष्यकर्म के समाप्त होते ही सिद्ध दशा प्रकट होती है। इसी देह में रहने पर भी उनकी दशा तो पूर्ण रूप से देहातीत होती है। देहरहित होने पर वे सिद्धावस्था को प्राप्त करते हैं, तब वे सिद्ध परमात्मा
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१५० 'मोह स्वयंभूरमण समुद्र तरी करी,
स्थिति त्यां ज्यां क्षीणमोहगुणस्थान जो; अंत समय त्यां पूर्णस्वरूप वीतराग थई, प्रगटा, निज केवलज्ञान निधान जो ।। १४ ।।' 'चार कर्म घनघाति ते व्यवच्छेद ज्यां, भवनां बीज तणो आत्यंतिक नाष जो; सर्व भाव ज्ञाता-दृष्टा सह शुद्धता, कृत्यकृत्य प्रभुवीर्य अनन्त प्रकाश जो ।। १५ ।।'
-अपूर्वअवसर ।
-अपूर्वअवसर ।
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