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________________ ३३० जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा शब्दों की सीमा में बान्धकर प्रकट नहीं किया जा सकता।४६ वासुपूज्यजिन स्तवन में उन्होंने परमात्मा के अतिशयों को भी प्रकट किया है - अपायापगमातिशय, ज्ञानातिशय, पूजातिशय और वचनातिशय।४७ वे लिखते हैं कि दर्शन, ज्ञानादि आत्मा के ही गुण हैं। परमात्मा उनकी प्रभुता को प्राप्त करते हैं एवं उन्हीं में लीन रहते हैं। वे शुद्ध स्वरूप में तन्मय होकर आस्वाद लेते हैं। वे अकर्ता होकर भी उनकी सेवा से सेवकों को सिद्धि प्रदान करते हैं। वे स्वधन को दिये बिना ही अपने आश्रितों को अक्षय ऋद्धि प्रदान करते हैं। इसी वासुपूज्यजिन स्तवन के अन्त में देवचन्द्रजी लिखते हैं कि परमात्मा की पूजा अपनी ही पूजा है। उसके द्वारा अनन्त शक्ति का प्रकटन और परमानन्द का अनुभव होता है। इस प्रकार श्रीमद् देवचन्द्रजी ने अपने चतुर्विंशतिजिन स्तवनों में स्थान-स्थान पर परमात्मा का विवेचन किया है और इस विवेचन के माध्यम से साधकों को परमात्मस्वरूप प्राप्त करने का निर्देश भी दिया है। ५.२.१३ श्रीमद् राजचन्द्रजी के अनुसार परमात्मा ____श्रीमद् राजचन्द्रजी 'अपूर्व अवसर' में परमात्मा के स्वरूप का विवेचन करते हुए लिखते हैं कि परमात्मदशा को प्राप्त करने के लिए स्वयम्भूरमण के समान मोहनीयकर्म को समाप्त करना आवश्यक है। जो साधक अथक पुरुषार्थ के द्वारा मोहनीयकर्म को क्षय करते हुए आठवें, नवें एवं दसवें गुणस्थान में चारित्रमोहनीय का क्षय करता है, उसका जीव क्षीणमोह नामक बारहवें गुणस्थान में आता है, क्योंकि क्षपक श्रेणीवाला साधक ग्यारहवें गुणस्थान का स्पर्श नहीं करता। जब बारहवें गुणस्थान के अन्त में ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्म का भी क्षय हो जाता है, तब सम्पूर्ण वीतरागता के साथ केवलज्ञान, केवलदर्शन, अनन्तसुखादि, १४६ वही १०/६। १४७ १४८ वासुपूज्यजिन स्तवन १२/३ । वही १२/४ । वही १२/४-५ । -वही । -वही । -वही । -वही । १४E Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001714
Book TitleJain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyalatashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Soul
File Size8 MB
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