________________
जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
, १३३
व्याख्यायित करते हुए आनन्दघनजी लिखते हैं : 'ज्ञानानंदे हो पूरण पावनों वर्जित सकल उपाधि - सुज्ञानी, अतीन्द्रिय गुण - मणि आगरू इम परमात्मसाध ।' अर्थात् वे परमात्मा अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसौख्य, अनन्तवीर्यादि अनन्तचतुष्टय से परिपूर्ण एवं परम पवित्र हैं। वे कर्मजन्य समस्त आधि, व्याधि और उपाधि से मुक्त हैं । जो अतीन्द्रिय गुणरूप मणियों के भण्डार हैं वे ही परमात्मा साध्य हैं । ऐसे परमात्मपद की प्राप्ति का उपाय बताते हुए श्री आनन्दघनजी कहते हैं कि
३२६
'बहिरात्म तजि अन्तर आतमा, रूप थई धिर भाव सुज्ञानी । परमात्मनुं हो आतम भाव, आतम अरपण दाव सुज्ञानी ।।'
१३४
अर्थात् आत्मसमर्पण ही वास्तव में परमात्म-प्राप्ति का सर्वश्रेष्ठ उपाय है। साधक पहले बहिरात्मदशा का परित्याग करके और अन्तरात्मा अर्थात् अपने शुद्ध स्वरूप में स्थित रहकर परमात्मस्वरूप का ध्यान करे और उसी का चिन्तन करे। दूसरे शब्दों में बहिर्मुखता का त्याग कर अपने अन्तःकरण में परमात्मा के शुद्ध स्वरूप का साक्षात्कार करे । यही परमात्मदशा की प्राप्ति का अनुपम उपाय है
I
आनन्दघनजी परमात्मा के केवलज्ञानमय स्वरूप का विवेचन करते हुए लिखते हैं कि :
'आतमज्ञानी श्रमण कहावे, बीजा तो द्रव्यलिंगी रे । वस्तु-गते जे वस्तु प्रकाशे, आनन्दघन मत संगीरे ।।'
१३५
अर्थात् परमात्मा के स्वरूप को शब्दों में समझ लेने मात्र से कोई आत्मज्ञानी नहीं होता, अपितु आत्मानुभूति से होता है । जैसे प्रकाश क्षेत्र की सीमा में रहे हुए सभी पदार्थ ज्यों के त्यों प्रकट होते हैं; वैसे ही केवलज्ञान के प्रकाश में सर्वज्ञ को सभी
१३३ श्री सुमतिजिन स्तवन गाथा ५/४ । १३४ वही गाथा ५/५ ।
१३५ श्री वासुपूज्यजिन स्तवन गाथा ६ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
- आनन्दघन चौबीसी ।
- आनन्दघन चौबीसी ।
www.jainelibrary.org