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जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
है।२२ वह वस्तुस्वरूप का निर्णय करके विभाव पर्याय का त्यागकर स्वस्वभाव में ही स्थित रहती है।२३ वे परमात्मा कैसे है? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए बनारसीदासजी लिखते हैं कि परमात्मा चैतन्य लक्षण युक्त हैं; अपने नित्य स्वभाव के स्वामी हैं; ज्ञानादि गुणरत्नों की खानरूप हैं; कर्मरूप रोगों का क्षय करने वाले हैं; शरीरादि पुद्गलों से पृथक् हैं; ज्ञानदर्शन रूप मोक्षमार्ग के प्रकाशक हैं; 'स्व' और 'पर' तत्त्व के ज्ञाता हैं, संसार से निर्लिप्त हैं और मन, वचन और काया के त्रिविध योगों से ममत्व रहित हैं अर्थात् योगों से रहित होकर ज्ञानावरणादि कर्मों के कर्ता और भोगों के भोक्ता भी
१२२ 'निहचै निहारत सुभाव यानि आतमाको,
आतमीक धरम परम परकासना । अतीत अनागत बरतमान काल जाकौ, केवल स्वरूप गुन लोकालोक भासना ।। सोई जीव संसार अवस्था मांहि करमको, करतासौ दीसै लीएं भरम उपासना । यह महामोहकौ पसार यहै मिथ्याचार ।
यह भी विकार यह विवहार वासना ।। ५ ॥' १२३ 'जगवासी अग्यानी त्रिकाल परजाइ बुद्धी ।
सो तौ विषै भेगनिको भोगता कहायौ है । समकिती जीव जोग भोगसौं उदासी तातें। सहज अभोगता गरंथनिमै गायो है ।। याही भांति वस्तु की व्यवस्था अवधारि बुध, परभाउ त्यागि अपनी सुभाउ आयौ है । निरविकलप निरूपाधि आतम अराधि, साधि जोग जुगति समाधि मैं समायौ है ।। ७ ॥
-समयसार नाटक (सर्वविशुद्धिद्वार) ।
- वही।
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