________________
३०८
जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
अनन्तज्ञान, अनन्तसुख, अनन्तवीर्यरूप अनन्तचतुष्टय से युक्त हैं,६६ वे ही परमात्मा हैं। उन्हें ही परम पवित्र कहा गया है और जो उन परम पवित्र का ध्यान करता है वह भी परम पवित्र तीर्थसम हो जाता है अर्थात् परमात्मपद को प्राप्त कर लेता है। पुनः वे परमात्मा के लक्षणों को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि जो निर्मल
और निष्कल है, शान्त है, शुद्ध है; वही जिन है, वही विष्णु है, वही बुद्ध है और वही शिव है। इस प्रकार योगीन्दुदेव की दृष्टि में कर्ममल से रहित निष्कलंक शुद्ध आत्मतत्व को ही परमात्मा कहा गया है। योगीन्दुदेव के अनुसार केवलज्ञान स्वभावरूप शुद्ध चैतन्य आत्मतत्व ही परमात्मा हैं। उसका ही ध्यान करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। जो राग-द्वेष का परित्याग करके अपने आत्मस्वभाव में स्थिर है वही परमात्मा है।६६ पुनः वे परमात्मा के लक्षण को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि जो समस्त विकल्पों से रहित हैं; परम समाधि में लीन हैं और आत्मानन्द की अनुभूति करते हैं वे ही परमात्मा हैं और उन्हें ही मोक्षपद कहा गया
-वही ।
-वही।
-वही ।
-वही ।
६६ (क) 'तिहि रहियउ तिहिं गुण-सहिउ जो अप्पाणि वसेइ ।
सो सासय-सुह भायणु वि जिणवरू एम भणेइ ।। ७८ ।।' 'चउ कसाय-सण्णा-रहिउ चउ-गुण-सहियउ वुत्तु ।
सो अप्पा मुणि जीव तुहुँ जिम परू होहि पवत्तु ।। ७६ ।।' (ग) 'अप्पा दंसणु णाणु मुणि अप्पा चरणु वियाणि ।।
अप्पा सजंमु सील तउ अप्पा पच्चक्खाणि ।। ८१ ।।' 'जो परियाणइ अप्प परू सो परू चयइ णिभंतु ।
सो सण्णासु मुणेहि तुहुँ केवल-णाणिं उत्तु ।। ६२ ।।' (च) 'रयणतय संजुत्त जिउ उत्तिमु तित्थु पवित्तु ।
मोक्खहं कारण जोइया अण्णु ण तंतु ण मंतु ।। ८३ ।।' ६७ 'दंसणु ज पिच्छियइ बुह अप्पा विमल महँतु ।।
पुणु-पुणु अप्पा भावियए सो चारित्त पवित्तु ।। ८४ ।।' ६८ 'जहिँ अप्पा तहिँ सयल गुण केवलि एम भणंति ।
तिहिं कारण एँ जोइ फुडु अप्पा अपपा विमलु मुणंति ।। ८५ ।। ६६ “एक्कलउ इंदिय-रहियउ मण-वय-काय ति सुद्धि ।। __ अप्पा अप्पु मुणेहि तुहुँ लहु पावहि सिव सिद्धि ।। ८६ ।।'
'जइ बद्धउ मुक्कउ मुणहि तो बधियहि णिभंतु । सहज-सरुवइ जइ रमहि तो पावहि सिव संतु ।। ८७ ।।'
-वही ।
-वही ।
-वही ।
-वही।
७०
-वही ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org