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अध्याय ५
परमात्मा का स्वरूप, लक्षण और प्रकार
५.१ परमात्मा का सामान्य स्वरूप
त्रिविध आत्मा की इस अवधारणा में अन्तिम आत्मा को परमात्मा कहा गया है। सामान्यतः यह माना जाता है कि जैन धर्म अनीश्वरवादी है। किन्तु यह कथन उसी सीमा तक सत्य हो सकता है जहाँ तक ईश्वर को सृष्टिकर्ता, उसका नियामक और संचालक माना जाता है। जैनदर्शन का विरोध ईश्वर के सृष्टि-कर्तृत्व की अवधारणा से है। उसके अनुसार आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप में परमात्मा भी है। उसका उद्घोष है कि 'अप्पा सो परम अप्पा' अर्थात् आत्मा ही परमात्मा है। वह यह भी मानकर चलता है कि प्रत्येक आत्मा बीज रूप में परमात्मा है। तक आत्मा कर्ममल से युक्त है और संसार में रही हुई है तब तक वह अशुद्ध आत्मा है। किन्तु जैसे ही वह अपने कर्मावरण का क्षय करती है, परमात्मस्वरूप को उपलब्ध हो जाती है।
जैनदर्शन के अनुसार प्रत्येक आत्मा अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और अनन्तवीर्य से युक्त है किन्तु उसकी ये शक्तियाँ कर्मावरण के कारण कुण्ठित हैं। आत्मा अपने प्रयत्न और पुरुषार्थपूर्वक जब इस कर्मावरण को दूर कर देती है और उसमें अनन्तचतुष्टय का प्रकटन हो जाता है तब उसे परमात्मा कहा जाता है। अनन्तचतुष्टय को आवृत्त करने वाले जो ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय कर्म हैं, उनके क्षय होने पर आत्मा अर्हत्, वीतराग और सर्वज्ञ पद को प्राप्त करती है। इसके पश्चात् जब आत्मा नाम, गोत्र, आयुष्य और वेदनीय कर्मों का क्षय कर देती है तो वह सिद्धपद को प्राप्त कर लेती है। इस प्रकार
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