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________________ २३६ जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा प्राणियों की दृष्टि में रात्रि है, उसमें संयमी मुनि जागता है और जब संसार के प्राणी जागते हैं तब वह उसे रात्रि समझता है।३ तात्पर्य यह है कि जहाँ संसार के प्राणी बाह्य विषयों में जाग्रत रहते हैं, वहाँ मुनि उन बाह्य विषयों से विमुख रहता है और जहाँ आत्मतत्त्व की अनुभूति में संसार के प्राणी प्रमाद करते हैं अर्थात् सोते हैं, वहाँ मुनि जागता है। इस प्रकार आचार्य शुभचन्द्र की दृ ष्टि में अन्तरात्मा की प्रवृत्ति बहिरात्मा से बिलकुल भिन्न होती है। अन्तरात्मा यह मानती है कि मेरी आत्मा ही ज्ञानमय है, वही दर्शन है और वही चारित्र भी है - अन्य सभी बाह्य पदार्थ सांयोगिक अन्तरात्मा के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए आचार्य शुभचन्द्र लिखते हैं कि जिसने यमादि का अभ्यास किया है एवं जो परिग्रह और ममता से रहित है; ऐसा रागादि क्लेशों से विमुक्त मुनि ही अपने मन को वश में करता है। क्योंकि जिसने मन को वशीभूत कर लिया है, उसने सम्पूर्ण विश्व को वशीभूत कर लिया है; किन्तु जिसने अपने मन को वशीभूत नहीं किया है, उसका अपनी इन्द्रियों (क) या निषा सर्वभूतेषु तस्यां जागर्ति संयमी ।। यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः ।। ३७ ।।' -ज्ञानार्णव सर्ग १८ । (ख) जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन' भाग २ पृ. ४४७ । -डॉ. सागरमल जैन । (ग) भगवद्गीता ८/१७ । (क) 'यद्यदृष्यमिदं रूपं तत्तदन्यन्न चान्यथा । ___ ज्ञानवच्च व्यतीताक्षमतः केनाऽत्र वचयहम् ।। २५ ।। -ज्ञानार्णव सर्ग ३२ । (ख) 'यः स्वमेव समादत्ते नादत्ते यः स्वतोऽपरम् । निर्विकल्पः स विज्ञानी स्वसंवेद्योऽस्मि केवलम् ।। २७ ।।' -वही । (ग) 'यद्बोधे मया सुप्तं यद्बोधे पुनरूस्थितम् । तद्रूपं मम प्रत्यक्षं स्वसंवेद्यमहं किल ।। ३१ ।।' -वही । 'आत्मैव मम विज्ञानं दृगवृत्तं चेति निष्चयः । मत्तः सर्वेऽप्यमी भावा बाह्याः संयोगलक्षणाः ।। २६ ।।' -वही सर्ग १८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001714
Book TitleJain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyalatashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Soul
File Size8 MB
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