SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 284
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अन्तरात्मा का स्वरूप, लक्षण और प्रकार २३५ अन्तरात्मा के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए आचार्य शुभचन्द्र लिखते हैं कि जो मुनि (अन्तरात्मा) इन्द्रियों के सोते हुए भी जागता है तथा आत्मा के द्वारा उस शुद्ध आत्मतत्त्व का दर्शन करता है, जो समस्त विकल्पों से रहित है, वही अन्तरात्मा कहलाता है।" विद्वज्जन भी उसे ही आत्मदर्शी मानते हैं। आगे वे लिखते हैं - "तू अपनी आत्मा में स्थित होकर जो समस्त क्लेशों से रहित अमूर्तिक, परम उत्कृष्ट, निवृत्त, अविनाशी, निष्कलंक, निर्लेप एवं निर्विकल्प है, उस अतीन्द्रिय आत्मा के दर्शन कर । ६२ ।। ___आचार्य शुभचन्द्र अन्तरात्मा के लिए सामान्यतः मुनि शब्द का प्रयोग करते हैं। वे लिखते हैं कि जहाँ संसार के प्राणी सोते हैं, वहाँ संयमी मुनि जागता है और अपनी आत्मा के द्वारा ही निर्विकल्प तथा निष्पन्द आत्मतत्त्व को जानता है। वे गीता के एक श्लोक को यथावत् ग्रहण करते हुए लिखते हैं कि जो समस्त १ (क) 'निःशेषक्लेश निर्मुक्तममूत्तं परमाक्षरम् । निष्प्रपंच व्यतीताक्षं पश्य स्वं स्वामनि स्थितम् ।। ३४ ॥' -ज्ञानार्णव सर्ग १८ । (ख) इति प्रतिज्ञां प्रतिपद्य धीरः समस्तरागादि कलंक मुक्तः । __ आलम्बते धर्म्यमचंचलात्मा शुक्लं च यद्यस्ति बलं विशालं ।। १६ ।।' -वही सर्ग ३१ । (ग) 'स एव नियतं ध्येयः स विज्ञेयो मुमुक्षुभिः । अनन्यशरणीभूय तद्गतेणान्तरात्मना ।। ३२ ।।' -वही। (घ) 'यः स्वमेव समादत्ते नादत्ते यः स्वतोऽपरम् । निर्विकल्पः स विज्ञानी स्वसंवेद्योऽस्मि केवलम् ।। २७ ।' -वही सर्ग ३२ । (च) 'संयोजयति देहेन चिदात्मानं विमूढधीः ।। बहिरात्मा ततो ज्ञानी पृथक् पश्यति देहिनम् ।। ११ ।।' -वही । (क) 'निर्लेो निष्कलः शुद्धोनिष्पन्नोऽयन्तनिवृतः । निर्विकल्पश्च शुद्धात्मा परमात्मेति वर्णितः ।। ८ ।।' (ख) 'कथं तर्हि पृथक् कृत्वा देहाद्यर्थकदम्बकात् । आत्मानमभ्यसेद्योगी निर्विकल्पमतीन्द्रियम् ।। ६॥' -वही। (ग) 'अपास्य बहिरात्मानं सुस्थिरेणान्तरात्मना । ____ ध्यायेद्वि शुद्धमत्यन्तं परमात्मानमव्ययम् ।। १० ।।' -वही । (घ) 'बहिर्भावानतिक्रम्य यस्यात्मन्यात्मनिश्चयः । सोऽन्तरात्मा मतस्तज्ज्ञैर्विभ्रमध्वान्त भास्करैः ।। ७ ।।' -वही। (च) 'बाह्यात्मान पास्यैवमन्तरात्मा ततस्त्यजेत् ।। प्रकाशयत्ययं योगः स्वरूपं परमेष्ठिन्: ।। २४ ।।' -वही । E२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001714
Book TitleJain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyalatashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Soul
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy