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________________ २१० जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा का आलम्बन लेकर परमात्मा का ध्यान किया जाता है। इस प्रकार यहाँ आचार्य कुन्दकुन्ददेव बहिर्मुखता से विमुख आत्मा को ही अन्तरात्मा कहते हैं। उनकी दृष्टि में अन्तरात्मा वही है जिसने भेदविज्ञान के द्वारा स्व-पर और आत्मा-अनात्मा का विवेक उपलब्ध कर लिया है। मोक्षप्राभूत में वे लिखते हैं कि आत्मा भिन्न है और उसके साथ लगे हुए कर्म भिन्न हैं। मात्र यही नहीं, कर्मों के प्रति आसक्ति से जो विकार उत्पन्न होते हैं वे भी पर हैं। इस प्रकार जो आत्मा 'स्व' और 'पर' के भेद को सम्यक प्रकार से जानती है वही अन्तरात्मा है। उनके अनुसार जो निर्द्वन्द्व, निरालम्ब और निर्ममत्व से युक्त है तथा देह के प्रति भी निरपेक्ष है और जो सदैव आत्मस्वरूप में रमण करता है वह निश्चय ही सम्यग्दृष्टि होता है और सम्यग्दृष्टि होने के परिणामस्वरूप वह अष्ट दुष्कर्मों का क्षय कर देता है। इस प्रकार यहाँ अन्तरात्मा के तीन लक्षणों को स्पष्ट किया गया है। प्रथम वह सम्यग्दृष्टि होती है; दूसरे वह सदैव ही अष्टकर्मों के क्षय के हेतु पुरुषार्थ करती रहती है और अन्तिम रूप से वह अपने आत्मस्वरूप में रमण करती है। वह यह मानती है कि परद्रव्यों में आसक्त रहना दुर्गति का कारण है और स्वद्रव्य अर्थात आत्मतत्व में निमग्न रहना यह सद्गति का कारण है। फलतः वह परद्रव्यों के प्रति विरक्त रहती है और आत्मद्रव्य में ही रमण करती है क्योंकि वह सचित्त अर्थात् -मोक्षपाहुड । -वही । -वही । (क) 'तिपयारो सो अप्पा परमंतरबाहिरो दु देहिणं । तत्थ परो झाइज्ज्ड अंतोबाएण चइवि बहिरप्पा ।। ४ ।।' (ख) 'अक्खाणि बहिरप्पा अंतरअप्पा हु अप्पसंकप्पो । कम्म कलंकविमुक्को परमप्पा भण्णए देवो ।। ५ ।।' (ग) 'आरुहवि अंतरप्पा बहिरप्पा छंडिऊण तिविहेण। __झाइज्जइ परमप्पा उवइटें जिणवरिंदेहिं ।। ७ ।।' 'णियदेहसरिच्छं पिच्छिऊण परविग्गहं पयत्तेण । अच्चेयणं पि गहियं झाइज्जइ परमभावेण ।। ६ ।।' 'सद्दवरओ सवणो सम्माइट्ठी हवेइ णियमेण । सम्मत्तपरिणदो उण खवेइ दुट्ठट्टकम्माइं ।। १४ ।।' 'दुट्ठकम्मरहियं अणोवमं णणविग्गहं णिच्चं ।। सुद्धं जिणेहिं कहियं अप्पाणं हवदि सद्दव्वं ।। १८ ।।' 'परदव्वादो दुगई सद्दव्वादो हु सुग्गई होइ । इय णाऊण सदव्वे कुणह रई विरइ इयरम्मि ।। १६ ।।' -मोक्षप्राभृतम् । -वही। -वही । -वही। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001714
Book TitleJain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyalatashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Soul
File Size8 MB
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