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जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
लक्षण सिद्ध होता है।१४ यहाँ पर अमितगति बहिरात्मा के मिथ्यात्व स्वरूप का निर्देश करते हुए लिखते हैं कि मिथ्यात्व ही बर्हिमुखता का आधार है। मिथ्यात्व के कारण जो वस्तु जिस रूप में स्थित है, उसका उस रूप में ज्ञान न होकर विपरीत रूप में ज्ञान होता है। यह मिथ्यात्व सारे कर्मरुपी बगीचे को उगाने या बढ़ाने के लिये जल सिंचन के समान है अर्थात् इसी कारण आत्मा (बहिरात्मा) संसार में भवभ्रमण करती रहती है। यहाँ पर अमितगति दर्शनमोह के उदयजन्य मिथ्यात्व के तीन भेद लिखते हैं: १. गृहीत; २. अगृहीत; और ३. सांशयिक। इसी मिथ्यात्व से प्रभावित जीव अतत्त्व को वैसे ही तत्त्व रूप मानता है;१६ जैसे कि धतूरे के नशे में प्राणी अस्वर्ण को स्वर्णरूप में देखता है।१७ ___आगे अमितगति बहिरात्मा की स्थिति का वर्णन करते हुए लिखते हैं कि जो आत्मा से पराङ्मुख होकर परद्रव्य में राग करती है वह बहिरात्मा शुद्ध चारित्र से विमुख रहती है। वस्तुतः जो मोक्ष की लालसा रखते हुए परद्रव्य की उपासना करते हैं, वे मूढजन (बहिरात्मा) ऐसे हैं जैसे कोई हिमवान् (हिमालय) पर्वत पर चढ़ने के इच्छुक होते हुए समुद्र की ओर चले। इसी प्रकार बहिरात्मा विपरीत दिशा में गमन करती है।
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-योगसारप्राभृत.अधिकार ३ ।
-वही अधिकार १
'सांसारिक सुखं सर्वं दुःखतो न विशिष्यते । यो नैव बुध्यते मूढः स चारित्री न भण्यते ।। ३६ ।।' 'वस्त्वन्यथा परिच्छेदो ज्ञाने संपद्यते यतः । तन्मिथ्यात्वं मतं सद्भिः कर्मारामोदयोदकम् ।। १३ ।।' 'उदये दृष्टि मोहस्य गृहीतम-गृहीतकम् । जातं सांशयिकं चेति मिथ्यात्वं तत् त्रिधा विदुः ।। १४ ।।' 'अतत्त्वं मन्यते तत्त्वं जीवो मिथ्यात्वभावितः । अस्वर्णमीक्षते स्वर्ण न किं कनकमोहितः ।। १५ ।।' 'ये मूढा लिप्सवो मोक्षं परद्रव्यमुपासते । ये यान्ति सागरं मन्ये हिमवन्तं यियासवः ।। ५० ॥'
-वही ।
-वही ।
-वही ।
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