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बहिरात्मा
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है। बहिरात्मा को मिथ्यादृष्टि के रूप में सम्बोधित करते हुए वे लिखते हैं कि वह देहादि पर-वस्तुओं का अपने को स्वामी मानती है। किन्तु जब तक जीव आत्म-अनात्म, जड़-चेतन का विवेक नहीं करता और पर-पदार्थों को अपना मानता रहता है वह कर्मबन्ध से नहीं बच सकता। वस्तुतः जब तक यह जीव परद्रव्यों से सुख-दुःख आदि की अपेक्षा रखता है तब तक वह मिथ्या दृष्टि या बहिरात्मा ही बना रहता है।०६ मिथ्यात्व से ग्रसित उसका चित्त जब तक स्व-आत्मा को 'पर' और पर-पदार्थी को 'स्व' या अपना मानता है तब तक वह बहिर्मुखी ही बना रहता है और संसार में परिभ्रमण करता रहता है। उसकी बुद्धि इस प्रकार की होती है कि वह राग, द्वेष, ईर्ष्या, लोभ, मोह-मद तथा इन्द्रियों के स्पर्श आदि विषयों में 'यह मेरे हैं' और 'मैं इनका हूँ' ऐसे तादात्म्य की अनुभूति करता है। इस प्रकार पर द्रव्यों में राग-द्वेष के वशीभूत होकर शुभाशुभ भावों को करता हुआ वह स्वरूप आचरण से विमुख या बर्हिमुख होता है। सत्य तो यह है कि इन्द्रियों के विषयों के सेवन से जो सुख मिलता है, वह उनके पीछे रही हुई तृष्णा के दाह की अपेक्षा नगण्य ही होता है। इसलिये वह दुःख ही है, तृष्णावर्धक है।१२ कर्मबन्ध के कारणरूप अनित्य एवं पराधीन इन्द्रियसुख में वस्तुतः सुख नहीं है, फिर भी आसक्त चित्त उसमें ममत्व बुद्धि करता है।१३ इस प्रकार अमितगति की दृष्टि में अनात्म में आत्मबुद्धि और इन्द्रियजन्य सुख में आसक्ति ही बहिरात्मा का
१०६ (क) 'कुर्वाणः परमात्मानं सदात्मानं पुनः परम् ।
मिथ्यात्व-मोहित-स्वान्तो रजोग्राही निरन्तरम् ।। २७ ।।' -योगसारप्राभृत.अधिकार ३ । (ख) 'एतेऽहमहमेतेषामिति तादात्म्यमात्मनः । विमूढः कल्पयन्त्रात्मा स्व-परत्वं न बुध्यते ।। २६ ।।'
-वही । 'राग-मत्सर-विद्वेष-लोभ-मोह मदादिषु । हृषीक-कर्म नोकर्म-रूप-स्पर्श-रसादिषु ।। २८ ।।'
-वही । 'रागतो द्वेषतो भावं परद्रव्ये शुभाशुभम् । आत्मा कुर्वन्नचारित्रं स्वचारित्र पराङ्मुखः ।। ३१ ।।'
-वही। 'यत्सुखं सुरराजानां जायते विषयोद्भवम् ।। ददानं दाहिकां तृष्णां दुखं तदवबुध्यताम् ।। ३४ !।'
-वही। १३ 'अनित्यं पीडकं तुष्णा वर्धकं कर्मकारणम् ।। शर्माक्षजं पराधीनमशर्मैव विदुर्जिनाः ।। ३५ ।।'
-वही ।
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