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________________ बहिरात्मा जीवनदृष्टि विकृत ही है। उनकी दृष्टि में पर-पदार्थ भी दुःख के कारण नहीं हैं, प्रत्युत उन पर - पदार्थों में जब तक एकत्व या ममत्व बुद्धि रहती है; तब तक व्यक्ति बहिर्मुखी रहता है। उनके अनुसार न केवल बाह्य पदार्थ अपितु राग-द्वेष, मोह, क्रोध, मान, माया, लोभ, हर्ष, शोक आदि भी आत्मा के लिए बाह्यतत्त्व हैं, क्योंकि ये सभी कर्मों के परिणमन रूप हैं आत्मा के स्व-स्वरूप नहीं हैं । जब तक व्यक्ति इनसे जुड़ा हुआ है तब तक वह बहिर्मुखी ही है । इस प्रकार मुनि रामसिंह ने विषयभोगों के प्रति एकत्व या ममत्व की बुद्धि तथा राग-द्वेष और तज्जन्य कषायादि भावों में अनुरक्तता इन सभी को बहिर्मुखी का लक्षण कहा है। वे कहते हैं कि जीव तत्त्वज्ञान से रहित होने के कारण वस्तु स्वरूप को विपरीत मानता है और जानता है । यही आत्मा की बहिर्मुख दशा है ।" -- ६६ मुनि रामसिंह बहिरात्मा के स्वरूप को व्याख्यायित करते हुए कहते हैं कि चेतनरूपी प्रियतम पाँचों इन्द्रियरूपी नारियों के स्नेह में आबद्ध हो गया है अर्थात् वह इन्द्रियों के वशीभूत हो गया है। २ जब तक वह इन्द्रियों के अधीन रहेगा तब तक विषयभोगों में आसक्त रहेगा और भोगों में आसक्त आत्मा कभी भी आत्मानुभव के आनन्द को प्राप्त नहीं कर सकेगी।७३ विषयासक्त बहिरात्मा नन्दनवनरुपी शुद्धात्मा के आनन्द- सरोवर में प्रवेश नहीं कर सकती।७४ मुनि रामसिंह आगे लिखते हैं कि जब इच्छाओं और आकांक्षाओं की उधेड़बुन में रहता है, तब तक वह तक मन 'सो णत्थि इह पएसो चउरासीलक्खजोणिमज्झम्मि | जिणवयणं अलहंतो जत्थ ण दुरूढढुल्लिओ जीवो ।। २३ ।।' 'अप्पा बुज्झिउ णिच्चु जइ केवलणाणसहाउ । ता परि किज्जइ कांइ वढ तणु उप्परि अणुराउ ।। २४ ।। ' 'बोहिविवज्जिउ जीव तुहुं विवरिउ तच्चु मुणेहि । कम्मविणिम्मिय भावडा ते अप्पाण भणेहि ।। २६ ।। ' ७२ 'पंचहिं बाहिरु णेहडउ हलि सहि लग्गु पियस्स । ७० ७१ - तासु ण दीसइ आगमणु जो खलु मिलिउ परस्स ।। ४६ ।।' ७३ 'ढिल्लउ होहि म इंदियहं पंचरं विण्णि णिवारि । ७४ एक्क निवारहि जीहडिय अण्ण पराइय णारि ।। ४४ ।। ' 'पंच बलद्द ण रक्खियइं णंदणवणु ण गओसि । अप्पु ण जाणिउ णवि परु वि एमई पव्वइओसि ।। ४५ ।।; Jain Education International १८५ For Private & Personal Use Only - पाहुडदोहा । -वही । -वही । -वही | -वही । -वही | www.jainelibrary.org
SR No.001714
Book TitleJain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyalatashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Soul
File Size8 MB
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