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________________ जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा ६३ चाहे केंचुली छोड़ दे किन्तु विष को नहीं छोड़ता है उसी प्रकार भोगाकांक्षा में लिप्त व्यक्ति वेश को बदल लेता है किन्तु अन्तर में भोगाकांक्षा बनी रहती है । ६२ वस्तुतः जब तक अन्तर से विषयकांक्षा समाप्त नहीं होती; तब तक व्यक्ति का जीवन बहिर्मुखी बना रहता है । ४ बहिर्मुखी आत्मा के लक्षण को स्पष्ट करते हुए मुनि रामसिंह कहते हैं कि जो जीव तत्त्वज्ञान से रहित होने के कारण आत्मा के शुद्ध स्वरूप को नहीं जानते हैं" और कर्मविनिर्मित शरीरादि एवं कषायादि को ही अपना मानते हैं वे निश्चित ही बहिर्मुखी हैं । ६६ १८४ .६७ इस प्रकार हम देखते हैं कि मुनि रामसिंह विषयभोग की अपेक्षा विषयाकाँक्षा को व्यक्ति के बहिर्मुखी जीवन का मुख्य आधार मानते हैं । ७ उनके अनुसार चाहे व्यक्ति धार्मिक क्रियाकाण्डों को करता रहे और बाहर से इन्द्रियों के विषयों का सेवन भी न करे, किन्तु जब तक मन में विषयकांक्षा बनी हुई है, तब तक उसकी जीवन दृष्टि मिथ्या या बहिर्मुखी रहती है। इसलिए उनका सर्वाधिक बल इस बात पर है कि सर्वप्रथम व्यक्ति को अपने जीवन को बदलना होगा। उनका कहना है कि जो पर है वह पर ही रहता है । वह कभी अपना नहीं हो सकता। क्योंकि जब तक जीवन में 'पर' के प्रति ममत्वबुद्धि है, तब तक व्यक्ति की ६२ 'सप्पे मुक्की कंचुलिय जं विसु तं ण मुएइ । ६३ ६४ ६५ ६६ ६७ ६८ भेयहं भाउ ण परिहरइ लिंगग्गहणु करेइ ।। १६ ।।' जो मुणि छंडिवि विसयसुह पुणु अहिलासु करेइ । लुंच सोसणु सो सहइ पुणु संसारु भमेइ ।। १७ ।।' 'विसया सुह दुइ दिवहडा पुणु दुक्खहं परिवाडि । भुल्लउ जीव म बाहि तुहं अप्पाखंधि कुहाडि ।। १८ ।।' 'उव्वडि चोप्पडि चिट्ठ करि देहि सुमिट्ठाहारु । सयल वि देह - णिरत्थ गय जिम दुज्जण उवयारु ।। १६ ।। 'अथिरेण थिरा मइलेण णिम्मला णिग्गुणेण गुणसारा । काएण जा विढप्पइ सा किरिया किण्ण कायव्वा ।। २० ।। ' 'उम्मुलिवि ते मूलगुण उत्तरगुणहिं विलग्ग । वारजे पलंब बुडुय पडेविणु भग्ग ।। २१ ।।' 'वरु विसु विसहरु वरु जलणु वरु सेविउ वणवासु । णउ जिणधम्मरम्मुहउ मिच्छत्तिय सहु वासु ।। २२ ।। ' Jain Education International For Private & Personal Use Only -वही | -वही । -वही | -वही । - वहीं -वही 1 -वही । www.jainelibrary.org
SR No.001714
Book TitleJain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyalatashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Soul
File Size8 MB
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