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________________ १७८ जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा ब्राह्मण हूँ, मैं वणिक हूँ, मैं क्षत्रिय हूँ, मैं शूद्र हूँ,२६ अथवा मैं स्त्री हूँ, मैं पुरुष हूँ, मैं नपुंसक हूँ, मैं जवान हूँ, मैं वृद्ध हूँ, मैं रूपवान हूँ, मैं शूरवीर हूँ, मैं पण्डित हूँ, मैं दिगम्बर हूँ, मैं श्वेताम्बर हूँ आदि।३० इस प्रकार वह कर्मजन्य शरीरादि पर्यायों को ही अपना मानता है।" वह भेदविज्ञान के अभाव में माता-पिता, पत्नी-पुत्र, मित्र और कुटुम्बीजनों को अथवा चाँदी-सोनादि परद्रव्यों अथवा नौकर-चाकर, गाय-बैल, हाथी-घोड़े, रथ-पालकी आदि को अपना मानता है।३२ यह पर-वस्तुओं में आत्म-बुद्धि ही उसके दुःख का कारण है। ऐसा व्यक्ति बहिरात्मा कहा जाता है, क्योंकि वह इन सब 'पर' वस्तुओं के निमित्त हिंसा, झूठ आदि पापकर्मों का सेवन करता है। योगीन्दुदेव लिखते हैं कि ब्रह्मा आदि देव जगत् के कर्ता नहीं हैं। यह जीवात्मा ही ज्ञानावरण आदि कर्मरूप कारणों को प्राप्त कर अनेक प्रकार के जगत् की सृष्टि करता है। जीवात्मा ही वस्तुतः अपने संसार का कर्ता कहा जाता है। क्योंकि वह कर्मों के कारण विविध शरीर, रूप, स्त्री, पुरुष आदि विभिन्न अवस्थाओं को धारण करता है। वस्तुतः परमात्मा को जो सृष्टि का कर्ता कहा जाता है, वह इस अपेक्षा से कि जीवात्मा ही अपने शुद्ध स्वरूप में परमात्मा है। किन्तु वही कर्मों से आबद्ध होकर बहिर्मुखी होने के कारण अपने संसार का कर्ता बन जाता है। शुद्धरूप से जो परमात्मा है वही कर्मजन्य अशुभ अवस्था के कारण अपने संसार का कर्ता -परमात्मप्रकाश १ ॥ -वही। -वही । २६ 'हउँ वरु बंभणु वइसु हउँ हउँ खत्ति हउँ सेसु । पुरिसु णउँसर इत्थि हउँ मण्णइ मूदु विसेसु ।। ८१ ।।' 'तरुणउ बूढउ रुयडउ सूरउ पंडिउ दिव्बु । खवणउ वंदउ सेवडउ मूढउ मण्णइ सव्वु ।। ६२ ।।" 'अप्पा वंदउ खवणु ण वि अप्पा गुरउ ण होइ। अप्पा लिंगिउ एक्कु ण वि णाणिउ जाणइ जोइ ।। ८८ ॥' ___ 'जणणी जणणु वि कंत घरु पुत्तु वि मित्तु वि दवु । माया-जालु वि अप्पणउ मूढउ मण्णइ सब्बु ।। ८३ ।।" 'दुक्खहँ कारणि जे विसय ते सुह हेउ रमेइ । मिछाइट्ठिउ जीवडउ इत्थु ण काई करेइ ।। ८४ ।।' 'जो जिउ हेउ लहेवि विहि जगु बहु-विहउ जणेइ ।। लिंगत्तय परिमंडियउ सो परमप्पपु हवेइ ।। ४० ।।' -वही। -वही। -वही । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001714
Book TitleJain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyalatashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Soul
File Size8 MB
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