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________________ बहिरात्मा बहिरात्मा का लक्ष्य में अविद्या नामक संस्कार दृढ़ होता है । ३ बाहर की ओर होता है । आत्मस्वरूप की ओर उसका लक्ष्य नहीं होता। ३.२.४ योगीन्दुदेव की रचनाओं में बहिरात्मा का स्वरूप परमात्मप्रकाश में बहिरात्मा बाह्य आत्मा का निर्वचन करते हुए योगीन्दुदेव कहते हैं कि “जो जीव पर्यायों में आसक्त बना हुआ है वह जीव अज्ञानी और मूढ़ होता है ।"२४ वह अपने इसी अज्ञान के वश में होने के कारण होनेवाले राग-द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ आदि विभाव-पर्यायों को अपनी मान लेता है और उसके परिणामस्वरूप अनेक प्रकार के कर्मों का बन्ध करता हुआ संसार में परिभ्रमण करता है । २५ ऐसा अज्ञानीजीव मिथ्यात्व में परिणमन करता हुआ, कर्मजनित शरीरादि जो परभाव हैं, उनको अपना मानता है । २७ भेदविज्ञान अर्थात् आत्म-अनात्म के सम्यक् विवेक के अभाव में वह कर्मजनित गोरे, काले, स्थूल, कृश शरीरादि तथा राग-द्वेष से जनित क्रोध, मान आदि कषायों को अपना मानता है । वह कहता है कि मैं गोरा हूँ, मैं काला हूँ, मैं स्थूल हूँ, कृश हूँ, २८ मैं २६ २३ वही श्लोक ११-१३, १५ एवं १६ । २४ २५ २६ २७ २८ 'जो परमत्यें णिक्कलु वि कम्म विभिण्णउ जो जि । मूढा सलु भणति फुडु मुणि परमप्पउ सो जि ।। ३७ ।।' 'पज्जय रत्तउ जीवडउ मिच्छादिट्टि हवेइ । बंध बहु विह कम्मडा जे संसारू भमेइ ।। ७७ ।।' 'कम्मईं दिढ-घण-चिक्कणइँ गरुवइँ वज्ज- समाईं । णा - विक्खणु जीवडउ उप्पहि पाडहिं ताईं ।। ७८ ।' ‘जिउ मिच्छत्तें परिणमिउ विवरिउ तच्चु मुणेई । कम्म विणिम्मिय भावडा ते अप्पाणु भणेइ ।। ७६ ।।' 'हउँ गोरउ हउँ सामलउ हउँ जि विभिण्णउ वण्णु । हउँ त अंगउँ थूलुहउँ एहउँ मूढउ मण्णु ।। ८० ।।' १७७ Jain Education International For Private & Personal Use Only - परमात्मप्रकाश १ । -वही । -वही । -वही | -वही । www.jainelibrary.org
SR No.001714
Book TitleJain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyalatashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages484
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Soul
File Size8 MB
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