________________
औपनिषदिक, बौद्ध एवं जैन साहित्य में आत्मा की अवस्थाएँ
१६७
आत्मध्यान से परम समाधि को प्राप्त कर लेते हैं। वह परमात्मदशा बहिरात्मा और अन्तरात्मा से ऊपर की अवस्था कही जाती है।
इस प्रकार जैन आचार्यों ने अपने ग्रन्थों में त्रिविध आत्माओं के स्वरूप लक्षण आदि की विस्तृत चर्चा की है। साथ ही यह भी बताया है कि बहिरात्मावस्था से अन्तरात्मावस्था तक कैसे पहुँचा जा सकता है? दोनों में क्या अन्तर है? परमात्मा बनने का उपाय क्या है? आत्मा की वे कौनसी स्थितियाँ हैं जो साधक को परमात्मदशा तक पहुँचने में बाधक या साधक हैं? आत्मा को परमात्मा बनने में सबसे बड़ा अवरोधक तत्त्व उसकी विषयोन्मुखता या बहिर्मुखता है। विषय विकार तथा राग-द्वेषजन्य विभावदशा में निमग्न आत्मा बहिर्मुखी होती है। उसकी विषयासक्ति उसे परमात्मा तो क्या अन्तरात्मा भी नहीं बनने देती। बहिर्मुखी आत्मा परमात्मदशा से विमुख रहती है। अतः जैनदर्शन का सन्देश है कि साधक बहिर्मुखता का त्यागकर अन्तरात्मा अर्थात् आत्माभिमुख बने। आत्माभिमुख साधक ही अन्त में परमात्मा बन सकता है।३ इस प्रकार इन तीन विशिष्ट लक्षणों के आधार पर जैनाचार्यों के
८३ (क) मोक्षपाहुड, गा. ४ । (ख) 'मूदु वियक्खणु बंभु परु अप्पा तिविहु हवेइ ।
- मोक्षपाहुड। देहु जि अप्पा जो मुणइ सो जणु मूढ हवइ ।। १३ ।।'
- मोक्षपाहुड । (ग) 'त्रिप्रकारं स भूतेषु सर्वेष्वात्मा व्यवस्थितः । बहिरन्तः परश्चेति विकल्पैर्वक्ष्यमाणकैः ।। ५ ।।'
-ज्ञानार्णव । (घ) 'बाह्यात्मनमपास्य प्रसत्ति भाजनाऽन्तरात्मन योगी ।
सततं परमात्मानं विचिन्तयेत्तन्मयत्वाय ।। ६ ।।' ___ -योगशास्त्र, द्वादश प्रकाश । (च) 'बहिरन्तः परश्चेति त्रिधात्मा सर्वहिषु । उपेयात्तत्र परमं मध्योपायाद् बहिस्त्य जेत् ।। ४ ।।'
-समाधितंत्र । (छ) 'ति-पयारो अप्पा मुणहि परु अंतरु बहिरप्पु । पर सायहि अन्तर सहिउ बाहिरु चयहि णिमंतु ।। ६ ।।'
-योगसार । (ज) 'जीवा हवन्ति तिविहा बहिरप्पा तह य अन्तरप्पा य ।
परमप्पा वि य दुविहा, अरहंता तह या सिद्धा य || १६२ ।।' -स्वामीकार्तिकेय । (झ) आध्यात्म रहस्य श्लोक ४-५ । (ट) योगावतार द्वात्रिंशिका १७ ।। (ठ) ब्रह्मविलास, परमात्म छत्तीसी २ । (ड) धर्मविलास, अध्यात्म पंचासिका ४१ । (ढ) आनन्दघन ग्रन्थावली, पद ४० ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org